आलेख़

जल : रुचिका गुप्ता

 

 

पूर्व स्थिति

ना रंग है ना ऱुप है
ना है कोई व्यवहार
शीतल हूँ शांत हूँ
जीवन का हू़ँ आधार
सभ्य हूँ मिलनसार हूँ
ले लेता हूँ सबका आकार
हद में रहता हूंँ लेकिन बेहद हूँ
सारी सृष्टि में हूँ साकार
मूल्यवान हूँ मनुष्य से परेशान हूँ
व्यर्थ में बहकर हो रहा बेकार
मैं बचूँगा नहीं मैं रहूँगा नहीं
किसी दिन छूट जाएगा ये संसार

वर्तमान स्थिति

बहाया तुमने व्यर्थ ही मुझे
अब बहाकर मैं ले जाऊँगा कहीं

बुझाई कितनों की प्यास मैंने
अब नाले में नहलाऊँगा कहीं..
डूब रहा था कहीं अस्तित्व मेरा
अब बेघर करके छोडूँगा कहीं..

गुमनामी में जीने की आदत डाली मैंने
अब न्यूज़ की हेडलाइन बन जाऊँगा कहीं
ख़त्म हो गई इंसानियत मेरी भी
मिटा सकता हूंँ इंसानों का वज़ूद कहीं..

अपनी ही धरती मांँ से जुदा कर रहे मुझे
अब छटी का दूध याद दिलाऊंँगा कहीं
कविताओं से रहा अभी तक नाता मेरा
मैं जल हूँ ,विनाशी हूँ, मैं हूँ अब हर कहीं..
मैं आज हूँ, तुम्हारा कल हूँ
याद रखना कभी भूलना नहीं

रुचिका गुप्ता

 

Leave a Reply