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योग की किसी भी परिभाषा में नहीं है जिक्र आसन और प्राणायाम का  :: जगदीश सिह

रांची, झारखण्ड | जून  | 21, 2021 :: योग भारतीय जीवन पद्धति का एक महत्वपूर्ण अंग है भारतीय विज्ञान के अनुसार योग की उत्पत्ति हजारों वर्ष पहले हुई.  सिंधु घाटी सभ्यता को योग विद्या का प्रारंभिक उद्गम माना जाता है. यह भारत की प्रथम शहरी सभ्यता है.  योग शब्द का उल्लेख सर्वप्रथम ऋग्वेद में हुआ.
ऋग्वेद एक प्राचीन भारतीय पाठ संग्रह है जो चार वेदों में सबसे ज्यादा प्रचलित है।

आज के समय में अगर योग की बात करें तो योग का अर्थ आसन  प्राणायम करना है।  लेकिन अगर ग्रंथों में उल्लेखित योग की परिभाषा या अर्थ को देखते हैं तो,  किसी भी परिभाषा में आसन प्राणायम का जिक्र नहीं है।

योग शब्द संस्कृत के युज धातु से बना है, जिसका अर्थ है जोड़ना अर्थात किसी वस्तु से अपने को जोड़ना ।
अंग्रेजी का योक शब्द भी उसी धातु से बना है ।

योग का आध्यात्मिक अर्थ है, वह साधन जिसके द्वारा योगी को जीवात्मा और परमात्मा के साथ ज्ञान पूर्वक संयोग होता है या संयोग कराने की प्रक्रिया बतलाई है ।

योग का अर्थ सभी आचार्यों ने आत्मदर्शन तथा ब्रह्म साक्षातपूर्वक स्वरूप स्थिति एवं मोक्ष की प्राप्ति से किया है ।
वेदानतिक शास्त्रों में भी आत्मदर्शन तथा ब्रह्म साक्षात्कार होने की बात कही है ।

आइए देखते हैं विभिन्न ग्रंथों एवं शास्त्रों में क्या दी गई है योग की परिभाषा और उसका अर्थ

* गणित शास्त्र में योग शब्द का अर्थ है जोड़ होता है।

*  रसायन शास्त्र में योग दो विभिन्न पदार्थों को अपना अपना स्वरूप खोकर एक अद्भुत पदार्थ में परिणत होने का ज्ञान भी योग है
उदाहरण के लिए  एक अनुपात नाइट्रोजन, तीन अनुपात हाइड्रोजन के योग के फलस्वरुप दो अनुपात अमोनिया प्राप्त होता है

* महर्षि व्यास के अनुसार योग

“योग: समाधि:”

महर्षि व्यास ने योग को समाधि बतलाया है । जिसका भाव यह है कि जीवात्मा इस उपलब्ध समाधि के द्वारा सच्चिदानंद ( सत + चित + आनन्द ) स्वरूप ब्रह्म का साक्षात्कार करें ।

* “पुरुष प्रकृत्योतियोगेपि योग इत्यभिधीयते”  – सांख्य शास्त्र

अर्थात प्रकृति पुरुष पृथ्कतव स्थापित कर अर्थात दोनों का वियोग करके पुरुष के स्वरूप में स्थिर हो जाना योग है।

कैवल्योपनिषद मे कहा है,,

“श्रद्धा भक्तियोगावदेहि ” (1/2 )

अर्थात श्रद्धा भक्ति और ध्यान के द्वारा आत्मा को जानना योग है

अग्नि पुराण

ब्रह्मप्रकाशकं ज्ञानं योगस्तत्रैक चित्तता ।
चित्तवृत्तिनिरोधश्च जीवब्रह्मात्मनीः परः ।। अग्निपुराण 183/ 1-2

अर्थात ज्ञान का प्रकाश पड़ने पर चित्त ब्रह्म मे एकाग्र हो जाता है, जिससे जीव का ब्रह्म मिलन हो जाता है।
ब्रह्म में चित्त की एकाग्रता ही योग है ।

स्कंद पुराण

‘‘जीवात्मा परमार्थोऽयमविभागः परमतपः
सः एव परोयोगः समासा कथितस्तव।’’

अर्थात जीवात्मा और परमात्मा का अलग अलग होना ही दुख का कारण है और इसका अपृथक तक भाव ही योग है ( एकत्व की स्थिति ही योग हैं )

लिंग पुराण
‘योग निरोधो वृत्तेस्तु चितस्य द्विज सत्तमा।’

अर्थात चित्त की सभी वृत्तियों का निरोध हो जाना उसे पूर्ण समाप्त कर देना योग है ।
उसी से परमगति अर्थात ब्रह्म की प्राप्ति होती है

विष्णुपुराण के अनुसार –
योगः संयोग इत्युक्तः जीवात्म परमात्मने
अर्थात् जीवात्मा तथा परमात्मा का पूर्णतया मिलन ही योग है।

कठोषनिषद् में योग के विषय में कहा गया है

यदा पंचावतिष्ठनते ज्ञानानि मनसा सह।
बुद्धिश्च न विचेष्टति तामाहुः परमां गतिम् ।।
तां योगमिति मन्यन्ते स्थिरामिन्द्रियधारणाम् ।
अप्रमत्तस्तदा भवति योगो हि प्रभावाप्ययौ।।
कठो.2/3/10-11

अर्थात् जब पाँचों ज्ञानेन्द्रियां मन के साथ स्थिर हो जाती है और मन निश्चल बुद्धि के साथ आ मिलता है. उस अवस्था को ‘परमगति’ कहते है।
इन्द्रियों की स्थिर धारणा ही योग है।
जिसकी इन्द्रियाँ स्थिर हो जाती है, अर्थात् प्रमाद हीन हो जाता है। उसमें शुभ संस्कारो की उत्पत्ति और अशुभ संस्कारो का नाश होने लगता है। यही अवस्था योग है।

गीता में श्रीकृष्ण ने अर्जुन से आध्यात्मिक चर्चा के दौरान योग को कई तरह से परिभाषित किया ।

योगस्थ: कुरू कर्माणि संगं त्यक्त्वा धनंजय:।सिद्ध्यसिद्धयो: समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।। गीता ( 2/48 )

अर्थात योग में स्थित हुआ कर्म फल को त्याग कर और सिद्धि असिद्धि में सम होकर तू कर्मों को कर, यह समता ही योग है।
जब किसी कार्य में अशक्ति होती है तभी उसके भले या बुरे फल का प्रभाव हमारे दिल दिमाग पर पड़ता है और उसके अनुसार ही संस्कार बन जाता है ।
फिर वही संस्कार पाप और पुण्य के रूप में कर्म के परिपक्व अवस्था में उदय होते है ।
इसी क्रम फुल को भुगतने के लिए ही विभिन्न योनियों में जन्म लेना पड़ता है और इस तरह से जन्म-मृत्यु के चक्र में ना पड़े और जब वे प्राप्त हो जाती है तो दिल दिमाग एकदम संतुलित रहता है, सम रहता है, इसी स्थिति का नाम समत्व है।
यही समता ही योग है

गीता में अन्यत्र  भी कहा गया है

बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृतें।
तस्माद योगाय युज्यस्व योग: कर्मसुकौशलम्।। 2/50

अर्थात कर्मों की विशेषता के कौशल को योग कहते हैं ।
कर्म योग का संदेश है कि कार्य में पूरी तरह तनमय हो जाओ, आज जो काम समाने पड़ा हुआ है, उसे समस्त बुद्धिमता, दिलचस्पी, सावधानी और मेहनत के साथ करो।
उसमें इतने तत्पर हो जाओ कि कल की चिंता उसके सामने गौन हो जाए, उसका ध्यान ही ना आने पाए ।
इस प्रकार जब संपूर्ण इच्छाशक्ति के साथ आज का काम किए किया जाएगा तो निसंदेह उसका फल आशातीत सफलता युक्त होगा।

योग सूत्र के प्रणेता महर्षि पतंजलि ने योग को परिभाषित करते हुए कहा है

‘ योगश्चित्तवृत्तिनिरोध:’  यो.सू.1/2

अर्थात चित्त की वृत्तियों का निरोध करना ही योग है। चित्त का तत्पर अंतरण से है। बाहयकरण ज्ञानेन्द्र जब विषयों को ग्रहण करती है, मन ज्ञान को आत्मा तक पहुँचता है।
आत्मा साक्षी भाव से देखता है
बुद्धि अहंकार विषय का निश्चय करके उसमें कर्तव्य भाव लाते है।
इस संपूर्ण क्रिया से चित्त में जो प्रतिबिंब बनता है  वही वृत्ति कहलाता है। यह चित्त का परिणाम है ।
अतः  विषयाकार उसमें आकर प्रतिबिंबित होता है अर्थात चित्त का विषयाकार हो जाता है ।
इस चित्त को विषयाकार होने से रोकना ही योग है

लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि योग में आसन और प्राणायम का कोई महत्व नहीं है,  दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि योग की उस अवस्था में पहुंचने के लिए आसन और प्राणायम एक माध्यम है,  जिससे होकर ही योग को सही रूप से परिभाषित किया जा सकता है।

इस स्थिति को समझाने के लिए पंतजलि ने अपने योग सूत्र के साधन पाद के 28 श्लोक में कहा है कि

योगाङ्गाऽनुष्ठानादशुद्धिक्षये ज्ञानदीप्तिराविवेकख्यातेः॥2.28॥

महर्षि कहते हैं कि योग के आठ अंगों के अनुष्ठान करने से अर्थात उनको आचरण में लाने से चित्त के मल का अभाव होकर वह सर्वथा निर्मल हो जाता है ।
उस समय योगी के ज्ञान का प्रकाश विवेकख्याति तक हो जाता है, अर्थात उसे आत्मा का स्वरूप, बुद्धि, अहंकार और इंद्रियों से सर्वथा भिन्न प्रत्यक्ष दिखाई देता है ।
योग के आठ अंगों को अष्टांग योग की संज्ञा दी गई है ।
इसका उल्लेख महर्षि पतंजलि योग सूत्र के साधन पाद के 29 श्लोक में किया है

यमनियमाSSसनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधयोSष्टावङ्गानि ।।

उन्होंने कहा है यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि, ये योग के आठ अंग है और हर अंग  का अपना महत्व है ।

अत: हम कह सकते हैं, हालांकि योग की किसी भी परिभाषा में आसन प्राणायम का जिक्र नहीं है   फिर भी इसका महत्व कम नहीं आंका जा सकता क्योंकि इनमें पारंगत होने के बाद ही योग की उच्च अवस्था में पहुंचा जा सकता है, या यूँ कहे योग की परिभाषा को चरितार्थ किया जा सकता है

निष्कर्ष के तौर पर हम कह सकते हैं कि योग केवल आसन  प्राणायम ही नहीं है उससे भी अधिक है आसन प्राणायम तो मात्र उसकी सीढ़ियां हैं

जगदीश सिह
Masters in Yogic Science
Email : jagdishranchi@gmail.com

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