जुलाई | 31, 2017 :: साधारण कद-काठी, धोती-कुर्ता और सादगी उनकी पहचान रही है। उनके निधन के 82 वर्ष बाद भी उनकी कालजयी रचना ‘कफन’, ‘गबन’, ‘गोदान’, ‘ईदगाह‘ और ‘नमक का दरोगा‘ हर किसी को बचपन की याद दिलाती है। गोरखपुर में ही उन्होंने ऐसे कई उपन्यास को मूर्तरूप दिया, जिसके किरदार हमेशा के लिए अमर हो गए।
प्रेमचंद का मूल नाम धनपत राय था। कलम के जादूगर के नाम से मशहूर इस लेखक की हिन्दी, उर्दू और अंग्रेजी भाषा पर सामान्य पकड़ थी. बहुत कम लोग जानते हैं कि प्रेमचंद ने हिंदी से पहले उर्दू में लिखना शुरु किया था.
हिंदी के कालजयी साहित्यकारों में से एक मुंशी प्रेमचंद उर्फ़ धनपत राय के साहित्य में आज़ादी से पहले के भारतीय समाज की जैसी सच्ची तस्वीर सामने आती है, वो सच्चाई और अपनापन बहुत कम लेखकों की रचनाओं में आपको देखने को मिलेगा।
प्रेमचंद बेहद ही सामान्य परिवार में बनारस के पास लमही गांव में 31 जुलाई 1880 को पैदा हुए थे। उनके पिता मुंशी अजायबलाल डाकखाने में मुंशी थे और आर्थिक रूप से बेहद सामान्य व्यक्ति थे। प्रेमचंद जब 8 साल के थे तभी उनकी मां का निधन हो गया। इतना ही नहीं वे जब सिर्फ 14 साल के थे तब पिता भी चल बसे। प्रेमचंद को जीवन भर इसका दुःख रहा और उनकी कहानियों में भी ये साफ़ महसूस किया जा सकता है।
माता-पिता के चले जाने से दुखी प्रेमचंद की सिर्फ 15 साल की उम्र में शादी कर दी गई। बीवी के साथ पांच लोगों के पेट पालने का जिम्मा उनपर आ गया। कमाई का कोई जरिया था नहीं तो शादी टिक नहीं पाई और घर में क्लेश रहने लगा। आखिरकार शादी टूट गई और बाद में प्रेमचंद ने बाल विधवा शिवरानी देवी से दूसरा विवाह किया।
पिता के जीवित रहने के दौरान ही सिर्फ 13 साल की उम्र से प्रेमचंद ने लिखना शुरू कर दिया था। जब पिता गुजर गए तो उन्होंने ट्यूशन पढ़ा कर रोजी-रोटी चलाना शुरू किया। ऐसे ही कठिनाइयों से गुजरते हुए उन्होंने किसी तरह मैट्रिक तो पास कर ली लेकिन आगे पढ़ने के लिए उन्हें स्कूल में मास्टरी शुरू करनी पड़ी। यह नौकरी करते हुए उन्होंने एफए और बीए पास किया। एम.ए. भी करना चाहते थे, पर कर नहीं सके। स्कूल मास्टरी के रास्ते पर चलते–चलते सन 1921 में वे गोरखपुर में डिप्टी इंस्पेक्टर स्कूल थे। जब गांधी जी ने सरकारी नौकरी से इस्तीफे का नारा दिया, तो प्रेमचंद ने गांधी जी के सत्याग्रह से प्रभावित हो, सरकारी नौकरी छोड़ दी।
शुरू में प्रेमचंद ने कुछ नाटक लिखे और बाद में उर्दू में उपन्यास लिखना शुरू किया। इस तरह उनका साहित्यिक सफर शुरू हुआ जो मरते दम तक साथ रहा। इसी दौरान उनकी पांच कहानियों का संग्रह ‘सोज़े वतन छपा।’ इसमें उन्होंने देश प्रेम और देश की जनता के दर्द को लिखा। अंग्रेज शासकों को इसमें बगावत की बू आने लगी। इस समय प्रेमचन्द, नवाब राय के नाम से लिखा करते थे। नवाब राय पकड़ लिए गए और उनकी आंखों के सामने ‘सोज़े वतन’ को अंग्रेजों ने जला दिया। साथ ही बिना आज्ञा के न लिखने का प्रतिबंध भी लगा दिया।
धन और परिवार का पालन पोषण करने के लिए प्रेमचंद अपनी क़िस्मत आजमाने 1934 में माया नगरी मुंबई पहुंचे। उन्होंने अजंता कंपनी में कहानी लेखक की नौकरी भी की, लेकिन साल भर का अनुबंध पूरा करने से पहले ही वापस घर लौट आए। प्रेमचंद की कहानियों और उनके उपन्यासों पर कई फ़िल्में बनीं, लेकिन वो चलीं नहीं। प्रेमचंद के उपन्यास या कहानी पर बनी सबसे सफल फिल्म 1977 में बनीं ‘शतरंज के खिलाड़ी थी। ये फिल्म सत्यजीत रे ने बनाई थी। इस फ़िल्म को तीन फ़िल्म फेयर अवार्ड मिले। इस फ़िल्म की कहानी अवध के नवाब वाजिद अली शाह के दो अमीरों के ईद गिर्द घूमती है। प्रेमचंद की तीन कहानियों पर फ़िल्में बनीं जिनमें ‘सद्गति’ और ‘शतरंज के खिलाड़ी’ सत्यजीत रे ने हिंदी में बनाई और ‘कफ़न’ पर मृणाल सेन ने फ़िल्म बनाई। इसके आलावा ‘गोदान’, ‘गबन’ और ‘हीरा मोती’ पर टेलीविजन सीरियल भी बने।
कलम के जादूगर कालजयी लेखक मुंशीजी को 138वीं जयंती पर विनम्र श्रद्धांजलि 🌸
आलेख: कयूम खान, लोहरदगा।