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अपने समस्त अहंकार, घमंड, ज्ञान, अज्ञान, पद व शक्ति, अभिमान सभी गुरु के चरणों में अर्पित कर दें। यही सच्ची गुरु दक्षिणा होगी : जगदीश सिह

गुरुपूर्णिमा :: 24 जुलाई पर विशेष

अपने समस्त अहंकार, घमंड, ज्ञान, अज्ञान, पद व शक्ति, अभिमान सभी गुरु के चरणों में अर्पित कर दें। यही सच्ची गुरु दक्षिणा होगी

* गुरुदक्षिणा गुरु के प्रति सम्मान व समर्पण भाव है

* गुरु के प्रति सही दक्षिणा यही है कि गुरु अब चाहता है कि तुम खुद गुरु बनो।

* गुरु द्रोणाचार्य को एकलव्य अँगूठा काटकर गुरु के चरणों में रख दिया और वह एक इतिहास पुरुष बन गया।

* शिष्य इस बात के प्रति आश्वस्त रहते हैं कि वे जो कुछ भी दे रहे हैं एक सुपात्र के हाथों जा रहा है।

* दक्षिणा : गुरु और शिष्य को एक दूसरे के निकट लाती है

भारतवर्ष के गुरुकुलों में विद्यार्थी जब पढ़ने जाते थे तो वे या तो गुरु और उसके परिवार की सेवा करके अथवा यदि संपन्न परिवार के हुए तो कुछ शुल्क देकर विद्या प्राप्त करते, किंतु प्राय: शुल्क देनेवाले कम ही व्यक्ति होते थे और अधिकांश सेवासुश्रूषा से ही विद्या प्राप्त कर लेते थे।
प्राय: ऐसे विद्यार्थी अपनी शिक्षा समाप्त कर जब घरचलने लगते तब गुरु को सम्मान और श्रद्धास्वरूप कुछ भेंट अर्पित करते जो दक्षिणा कहलाती थी। धीरे धीरे गुरुदक्षिणा की रीति सी बन गई और अत्यंत गरीब विद्यार्थी भी कुछ न कुछ दक्षिणा अवश्य देने का यत्न करने लगे। यह दक्षिणा विधान में आवश्यक रूप से देय मानी गई हो, ऐसा नहीं, किंतु श्रद्धालु विद्यार्थी स्वेच्छया उसको दें, यह क्रम हो गया और आज भी प्राचीन परिपाटी से पढ़नेवाले विद्यार्थी गुरुपूर्णिमा (आषाढ़ मास की) के दिन अपने गुरुओं की द्रव्य, फल मूल, पुष्प और मिष्ठान्न दक्षिणा सहित पूजा करते हैं।
गुरुदक्षिणा गुरु के प्रति सम्मान व समर्पण भाव है। गुरु के प्रति सही दक्षिणा यही है कि गुरु अब चाहता है कि तुम खुद गुरु बनो।
गुरुदक्षिणा उस वक्त दी जाती है या गुरु उस वक्त दक्षिणा लेता है जब शिष्य में सम्पूर्णता आ जाती है। अर्थात जब शिष्य गुरु होने लायक स्थिति में होता है। गुरु के पास का समग्र ज्ञान जब शिष्य ग्रहण कर लेता है और जब गुरु के पास कुछ भी देने के लिए शेष नहीं रह जाता तब गुरुदक्षिणा सार्थक होती है।

गुरुदक्षिणा का अर्थ है कि गुरु से प्राप्त की गई शिक्षा एवं ज्ञान का प्रचार-प्रसार व उसका सही उपयोग कर जनकल्याण में लगाएँ। मूलतः गुरुदक्षिणा का अर्थ शिष्य की परीक्षा के संदर्भ में भी लिया जाता है।

गुरु द्रोणाचार्य ने एकलव्य से दाहिने हाथ का अँगूठा माँगा। एकलव्य ने सहर्ष अपना अँगूठा काटकर गुरु के चरणों में रख दिया। इससे एकलव्य का अहित नहीं हुआ, बल्कि एकलव्य
की ख्याति दूर-दूर तक फैल गई और वह एक इतिहास पुरुष बन गया। गुरु का प्रेम दिखने में कठोर होता है, किंतु इससे शिष्य का जरा भी अहित नहीं होता।

गुरु का पूरा जीवन अपने शिष्य को योग्य अधिकारी बनाने में लगता है। गुरु तो अपना कर्तव्य पूरा कर देता है, मगर दुसरा कर्तव्य शिष्य का है वह है- गुरुदक्षिणा।
हिंदू धर्म में गुरुदक्षिणा का महत्व बहुत अधिक माना गया है। गुरुकुल में शिक्षा ग्रहण करने के बाद जब अंत में शिष्य अपने घर जाता है तब उसे गुरुदक्षिणा देनी होती है। गुरुदक्षिणा का अर्थ कोई धन-दौलत से नहीं है। यह गुरु के ऊपर निर्भर है कि वह अपने शिष्य से किस प्रकार की गुरुदक्षिणा की माँग करे।

गुरु दक्षिणा की प्रथा आज भी कायम है शिष्य अपने उपार्जन या संपत्ति से प्राप्त सर्वोत्तम वस्तु गुरु को अर्पित करता है ।
यह उसकी आध्यात्मिक शक्ति के प्रति उसकी भक्ति की प्रतिबद्धता का एक रूप है ।
दक्षिणा, गुरु और शिष्य को एक दूसरे के निकट लाती है तथा उनके बीच धीरे-धीरे अधिक गहरा संबंध स्थापित होता जाता है।
शिष्य एक ऐसे पुत्र का उत्तरदायित्व स्वीकार कर लेता है जो अपने पिता की देखरेख करता है तथा उसकी प्रत्येक आवश्यकता का ख्याल रखता है।

भारत में शिष्यगण गुरु की सेवा हेतु अपने सभी साधनों का उपयोग करते हैं ।वास्तव में वे गुरु चरणों में अपना सर्वस्व तक निछावर कर देते हैं वे इस बात के प्रति आश्वस्त रहते हैं कि वे जो कुछ भी दे रहे हैं एक सुपात्र के हाथों जा रहा है। वह यह भी जानते हैं कि आध्यात्मिक दृष्टि से प्रबुद्ध व्यक्ति के लिए धन संपत्ति, यश, प्रतिष्ठा एवं प्रसिद्धि का कोई महत्व नहीं होता।
वे इनका उपयोग से एक उद्देश्य से करते हैं संपूर्ण मानव समाज में ज्ञान और विवेक का प्रसार।
भौतिक संपदा का उपयोग का इससे अधिक उत्तम तरीका क्या हो सकता है

अपने समस्त अहंकार, घमंड, ज्ञान, अज्ञान, पद व शक्ति, अभिमान सभी गुरु के चरणों में अर्पित कर दें। यही सच्ची गुरु दक्षिणा होगी।

अखण्ड मंडलाकारं व्याप्तं येन चराचरं |
तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्री गुरुवे नम : ||

जो अखण्ड है, सकल ब्रह्माण्ड में समाया है, चर-अचर में तरंगित है, उस (प्रभु) के तत्व रूप को जो मेरे भीतर प्रकट कर मुझे साक्षात दर्शन करा दे, उन गुरु को मेरा शत शत नमन है

 

जगदीश सिह

 

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