आलेख़

आध्यात्मिक स्वास्थ्य मन की आवाज : डॉ अभिषेक सिंह

चिकित्सा और शिक्षा दोनों ही प्राचीन पेशे है। वैदिक रचनाओं में इन दोनों ही पेशे को गुढ़ विद्या माना गया है। रामायण और महाभारत कालीन ग्रंथों में गुरु वसिष्ठ, विश्वमित्र, दोणाचार्य और भगवान परशुराम की शिक्षा का वर्णन है तो वहीं चिकित्सा शास्त्र से जुड़े लंका नगरी के सुषेण वैद्य, धन्वंतरि और देवताओं के वैद्य अश्विनी कुमार के चमत्कारों से सब परिचित हैं। सुश्रुत,नागार्जुन,जीवक,आत्रेय और चरक की संहिता से कौन नहीं जानता।

शिक्षक और चिकित्सक दोनों ही मार्गदर्शक और मित्रवत गुणों को समाहित किये हुए होते है। शिक्षण और चिकित्सा पेशा है या धर्म यह विषय भी सदैव चर्चा में रहता है। इसे अपनानाने वाले भी द्वंद में रहते है कि धर्म के मार्ग का अनुसरण करें या पेशेवर गुणों के साथ आगे बढ़े। शिक्षण कौशल के अंतर्गत ही एक विषय शामिल है जिसका नाम शिक्षण अधिगम के सिद्धांत है। इसमें अच्छे शिक्षक के गुणों और कर्त्वयों से जुडी बातें बतायी गई हैं।

एक चिकित्सक होने के नाते मेरे मन में भी यह सवाल उठते रहते थे जब तक मैंने भगवान बुद्ध के बताये स्वर्णिम मार्ग को अपना आदर्श वाक्य नहीं बनाया और इसे अपने रोजमर्रा की जिंदगी में नहीं अपनाया था।

हमारे समाज में डॉक्टर को भगवान का दर्जा दिया गया है, इसलिए इतना बड़ा दर्जा पाने के साथ ही किसी भी डॉक्टर की जिम्मेदारियां बहुत ही ज्यादा बढ़ जाती है।

एक डॉक्टर का सबसे बड़ा और पहला शीर्ष गुण यही होना चाहिए कि वह सब तो सबसे पहले अपने मरीज को देखकर उसके मनोभावों को समझ सके और उसको यह विश्वास दिला सके कि आपकी जो भी बीमारी है वह उसको ठीक कर देगा। अन्य गुण यह होना चाहिए कि डॉक्टर अपने मरीज के साथ मित्रवत व्यवहार करें। एक डॉक्टर को अपने मरीज के साथ ईमानदार होना चाहिए कोई भी बात उसे छिपाने नहीं चाहिए।एक सच्चे डॉक्टर को अपनी जिम्मेदारी पूरी कर्तव्य निष्ठा के साथ उठानी चाहिए।

एक चिकित्सक होने के नाते मेरे अंतर्मन में भी यह सवाल उठते रहे की आखिर अच्छा डॉक्टर किसे कहते है? क्या परिभाषा और कौन सी है कसौटी जिसपर हम जैसे परखे जाते है।

मेरे जीवन की चिकित्सा शिक्षा प्राप्त करने की यात्रा में पहला पड़ाव था कोलकाता मेडिकल कॉलेज जहाँ से मैंने एमबीबीएस की पढ़ाई की। कॉलेज में मुझे पता चला कि भारत के महान स्वतंत्रता सेनानी, डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार ने भी इसी कॉलेज से मेडिकल की शिक्षा प्राप्त किया और समूचा जीवन हिन्दू समाज व राष्ट्र के लिए समर्पित कर दिया। यह जानकारी मेरे जीवन में सबसे बड़ी प्रेरणा बनी। मैंने भी चिकित्सा और सेवा का एक अन्योनाश्रय संबंध अपने जीवन में स्थापित किया। पांच वर्ष की उम्र से शाकाहारी जीवन जीने वाले और रामायण और महाभारत को पढ़ते हुए बड़ा होने वाले तरुण के लिए यह को बड़ा संकल्प नहीं था।

इसके बाद मास्टर ऑफ़ मेडिसिन की पढाई के लिए एम्स दिल्ली और फिर एफआरसीएस करने के लिए इंग्लैंड के ग्लासगो यूनिवर्सिटी में भी पढ़ने का मौका मिला। देश विदेश के भ्रमण के दौरान यह प्रश्न मुझे सैदव याद रहा ” अच्छा डॉक्टर किसे कहते है? मैंने स्वयं को ही उत्तर दिया अच्छे डॉक्टर’ की पहचान सरल है। ”

मैंने अपने दैनिक जीवन में कुछ नियम बनाये जो मेरे प्रतिदिन के कार्य से जुड़ा था यानि मेरे पेशे चिकित्सा कार्य से मैं उसका पालन आज भी करता हूँ।

क्या मैं मरीजों को सहजता से उपलब्ध होता हूँ ?

क्या मैं उनकी बातें धीरज के साथ सुनता हूँ।

क्या मेरा व्यवहार संतुष्टि दायक होता है।

क्या मैं मरीजों को एक अच्छा विद्यार्थी और गुरु लगता हूं।

प्रतिदिन अपने चिकित्सा केंद्र पर आये मरीजों के साथ बिताये गए दिन के बाद इन प्रश्नों पर फीड बैक लेकर मुझे यह एहसास हो जाता है कि मैं अच्छे डॉक्टर की परिभाषा वाली राह पर चल रहा हूँ।

इसके अलावा मीनाक्षी नेत्रालय सेवा संस्थान ट्रस्ट द्वारा संचालित सेवा सदन में प्रतिदिन कितने ही मरीजों का निः शुल्क परामर्श और इलाज किया ही जाता है। मीनाक्षी नेत्रालय द्वारा राज्य के दो जिले चतरा और लातेहार जिले के गांव गांव जाकर निः शुल्क नेत्र चिकित्सा शिविर भी लगाया जा रहा है। शिविर में दवा वितरण भी निः शुल्क होता है और किसी प्रकार की जाँच के लिए कोई शुल्क ग्रामीणों से नहीं लिया जाता है।

इस प्रकार के शिविर लगाकर मैं केवल ममरीजों का इलाज नहीं करता बल्कि उन्हें स्वस्थ जीवन के सिद्धांतों से भी परिचित करवाता हूँ। उनके अंदर जीने और स्वस्थ रहने के लिए किये जाने वाले कार्यों से भी परिचय करवाता हूँ।

 

 

डॉ अभिषेक सिंह

(लेखक मीनाक्षी नेत्रालय के प्रबंध निदेशक एवं नेत्र चिकित्सक है)

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