आलेख़

मजदूर और मजदूरों का आंदोलन

मई | 01, 2020 :: आज पूरी दुनिया मजदूर दिववस मना रही है।

मजदूरों के सम्मान में विज्ञापन दिये जा रहे है लेख लिखे जा रहे है।।
मजदूरों के द्वारा किये विभिन्न स्थानों के आंदोलनों को याद किया जा रहा है।
लेकिन हमें यह जानना होगा कि,  सर्वप्रथम स्पार्टक्स नामक दास (गुलाम) के नेतृत्व में मजदूरों का संघर्ष रोमन साम्राज्य की चूूलेंं हिला कर रख दी थी। यह घटना 1789 की है।

ऐसा कहा जाता है कि इन्हीं गुलामों ने फ्रांस से सदा के लिए राजशाही का अंत कर दिया था।
उस समय फ्रांस के राजा लुई सोलहवां हुआ करते थे। इसे आधुनिक दुनिया की प्रथम क्रांति के रूप में जाना जाता है और इसे फ्रांस की राज क्रांति की संज्ञा दी जाती है।
आधुनिक विश्व में सामान्य प्रजा की जीत की यह पहली घटना थी। इसके बाद दुनिया में प्रजातंत्र की नींव पड़ी।

1917 में रशियन क्रांतिकारी ब्लादिमीर लेनिन के नेतृत्व में रूस में बोल्शेविक क्रांति हुई और वहां से भी जारशाही यानी राजशाही का अंत हो गया।
लेनिन के नेतृत्व वाली सरकार दुनिया की पहली साम्यवादी सरकार थी यानी मजदूर और किसानों की सरकार थी।
द्वितीय विश्व युद्ध ने दुनिया में राजा-रानी की कहानी को ही मानों समाप्त कर दिया।
श्रमिकों, मजदूर और किसानों की संगठित ताकत ने लोकतंत्र को बल दिया और उसको दिशा देने का काम साम्यवादियों ने किया। लेनिन के नेतृत्व वाली रक्तहीन बोल्शेविक क्रांति ने दुनिया के राजनीतिक इतिहास को बदल कर रख दिया।

साम्यवादी दावा करते हैं कि दुनिया का इतिहास संघर्षों का है।
कार्ल मार्क्स ने दुनिया की द्वंद्वात्मक तरीके से व्याख्या की और उस व्याख्या को लेनिन ने धरती पर उतारने की कोशिश की।
वह चिंतन कितना धरती पर उतरा और धरती पर स्वर्ग की कल्पना कितनी साकार हुई यह तो बहस का विषय है लेकिन लेनिन की तुलना युगान्तारी योद्धाओं से की जाती है।
दुनिया का आज तक का इतिहास मजदूरों के संघर्ष और बलिदान का इतिहास है लेकिन इतिहास पर राजा सामंतों का कब्जा होने के कारण मजदूरों के संघर्ष की कहानी कम ही पढ़ने को मिलती है।

यदि मध्यकालीन भारत के इतिहास को देखते हैं तो यहां भी मुगलों के खिलाफ किसान और मजदूरों की लड़ाई देखने को मिलती है।
यही नहीं शिवाजी महाराज के संघर्ष को भी किसानों का संघर्ष ही बताया जाता है।
नव साम्यवादियों की मानें तो आधुनिक लोकतंत्र में भी इतिहास की व्याख्या पूंजीपतियों के बचाव को लेकर की जाती है।

दरअसल, 1 मई 1886 को ही मजदूर आंदोलन ने इतिहास की पुरानी मान्यता को मिटाया था।
मजदूरों के श्रम पर सामंतों और राजाओं का अधिकार था। राजा और सामंत मजदूरों को अपनी संपत्ति समझते थे।
श्रमिक, किसान और हस्तशिल्पियों का अपना कोई व्यक्तिगत अस्तित्व नहीं था। वे मालिक के दास हुआ करते थे।
उस जमाने में मजदूरों की खरीद-बिक्री होती थी लेकिन स्पार्टकस का विद्रोह और फ्रांस की क्रांति ने दासत्व को खत्म कर दिया। इसके बाद 1 मई 1886 में शिकागो का आंदोलन हुआ। उसमें मजदूर, किसान, साधारण इंसान के व्यक्तिगत स्वतंत्रता और पहचान को वजूद में ला कर खड़ा कर दिया। भले ही आज भी मजदूर अपना श्रम बेचने वाले कहलाते हैं लेकिन श्रम पर अब उनका अधिकार है।

1 मई 1886 को अमेरिका के सबसे बड़े औद्योगिक केंद्र में मजदूरों की एक आम हड़ताल हुई। यह हड़ताल 8 घंटे के कार्य दिवस तथा बेहतर कार्य दशाओं की मांग को लेकर की गई थी। देखते ही देखते यह हड़ताल अमेरिका के शिकागो शहर में व्यापक रूप से फैल गयी। इस हड़ताल को तोड़ने के लिए उद्योग कारखाना मालिकों ने सरकार के पदाधिकारियों से  कार्रवाई का आग्रह किया। सरकारी नुमाइंदों ने उद्योगपत्तियों को सहयोग किया। ऐसा बराबर होता है।

कहा जाता है कि कमजोर शासन प्रणाली उद्योगपतियों एवं पूंजीवादियों की संस्था की तरह काम करने लगती है। उस समय भी ऐसा ही हुआ। हेमार्कित स्क्वेयर (शिकागो सहर का मैदान) में हो रही रैली में बम विस्फोट कराया गया और शिकागो पुलिस एवं गैरिसन सैनिकों ने हड़तालियों के ऊपर गोलियां चला दी। यह कार्रवाई ना सिर्फ शिकागो शहर में हुई बल्कि मजदूरों की जहां-जहां भी हड़ताल या रैलियां थीं या आंदोलन का केंद्र था, वहां वहां हुआ। सैकड़ों मजदूरों को गिरफ्तार किया गया।

शिकागो में गिरफ्तार 8 मजदूर एवं मजदूर नेताओं पर मुकदमा चलाया गया। तत्कालीन अमेरिकी सराकर ने मजदूर विरोधी प्रचार पर काफी खर्च किया। अमेरिकी समाचार पत्रों में आम लोगों के बारे में अनेक झूठी बातें छापी गई ताकि मजदूर विरोधी अभियान को उकसाया जा सके और जनता के बीच मजदूर विरोधी विचार पैदा किया जा सके। यहां तक कि शिकागो की अदालतों, न्यायालयों ने एक मुकदमा चलाकर कानून और उन सभी लोकतांत्रिक परंपराओं का खुला उपहास किया, जिसे अमेरिकी जनता ने अपनी स्वाधीनता संघर्ष के दौरान स्थापित किया था।

यद्यपि बम विस्फोट का आरोप जिन पर लगाया गया था, वह साबित नहीं हो सका, फिर भी अल्बर्ट पासर्न, अगस्ट स्पाइज, सैमुअल फिल्डन, माईकल स्वेव, एडोल्फ फिशर, जार्ज एंगल तथा लुईस लिंग को मृत्युदंड की सजा दी गई। आठवें व्यक्ति ऑस्कर को 15 वर्ष की सजा दी गई।

ताज्जुब की बात यह थी कि यह बात साबित हो चुका था कि जिन्हें मृत्युदंड दिया गया था। उसमें एक ही व्यक्ति रैली में शामिल था। पुलिस सेना की गोली और मृत्यु दंड की सजा ने मजदूर इतिहास को खून रंग दिया। यह इतिहास की बड़ी घटना बन गई । मजदूरों को फांसी इसलिए नहीं दी गई थी कि वह गुनाहगार थे बल्कि मजदूर आंदोलन को सदा के लिए कुचल देने के यह फांसी दी गई।

प्रख्यात अमेरिकी लेखक विलियम डीन हॉवेल ने अमेरिकी पत्र न्यूयॉर्क हेराल्ड ट्रिब्यून में एक लेख लिखा था। उसमें उन्होंने लिखा कि इस स्वतंत्र गणराज्य ने पांच लोगों को मात्र उनके विचारों के लिए मार दिया है। उन्होंने यह भी लिखा कि इस हत्या से देश की प्रतिष्ठा को भारी नुकसान पहुंचा है।

दुनिया के इतिहास ने शिकागो शहर को हेमार्केट स्क्वेयर को शहीद का दर्जा दे दिया और दुनिया के मजदूरों ने दुनिया के मजदूरों एक हो के नारे के साथ 1 मई को शिकागो के शहीदों को सलाम करने की बुनियाद डाल दी। यह आन्दोलन दुनिया के मजदूर आन्दोलन का माइल स्टोन बन गया। इस आन्दोलन ने श्रमिकों को आठ घंटे की ड्यूटी मानक बना दिया। आज 8 घंटे काम की अवधि को ही दुनिया मानती है। यह विश्वभर में लागू है।

आज कॉरपोरेट पक्षी सरकार और कॉरपोरेट घराने इतिहास के चक्र को पुन: पीछे ले जाने की कोशिश कर रहे हैं। पुन: मजदूरों के काम के घंटे को बढ़ाए जा रहा है। पूंजीपरस्त 10 और 12 घंटे काम करवाने लगे हैं। पहले इसके लिए अलग से ओवर टाइम पेमेंट किया जाता था लेकिन अब ऐसा नहीं हो रहा है। प्राइवेट कंपनियां तो इंजीनियरों से भी 24 घंटे की ड्यूटी ले रही है। मानसिक रूप से वह 8 घंटे के बदले 24 घंटे ड्यूटी कर रहे हैं।

हमारे देश में 1926 में ट्रेड यूनियन एक्ट बना, तब से आज तक मजदूरों के अनेक यूनियनों के नेतृत्व में आंदोलन की बुनियाद पर मजदूरों का जीवन शैली बेहतर बनाने का कार्य किया गया। देश के बहुत से मजदूर नेताओं ने अपना बलिदान देकर मजदूरों की दशा और दिशा सुधारने की कोशिश की लेकिन कई दलाल यूनियनों ने मजदूरों की कमाई को अपना हिस्सा बनाया। वही जिम्मेदार यूनियनों की कार्यशैली भी आर्थिक लाभ तक सीमित रही। इसलिए राजनीति में मजदूरों की भूमिका पीछे होती जा रही है।

आज का मजदूर आन्दोलन भी जातीय और साम्प्रदायिकता का शिकार हो रहा है। जिस प्रकार फ्रांस की राज क्रांति ने प्रजातंत्र की नींव रखी थी, उसी प्रकार एक मई की क्रांति ने मजदूरों की अहमियत को स्थापित किया। शिकागो की उसी मजदूर क्रांति ने लेनिन को रूस में साम्यवादी साम्राज्य की स्थापना के लिए प्रेरित किया। हालांकि लेनिन की आलोचना भी होती है लेकिन उन्होंने दुनिया के चक्र को बदल दिया था और मजदूरों को राजनीति के केन्द्र में लाकर रख दिया। इसकी नींव एक मई की क्रांति ने ही डाली थी।

इस लॉकडॉउन की अवधि में पूरे देश के लोग आर्थिक रूप से परेशान हैं। प्रतिदिन कमा कर जीविका चलाने वाले मेहनतकशों पर रोटी के लाले पड़ गए हैं। देश के लोगों में इम्यूनिटी बढ़ाने की जरूरत बताई जा रही है, लेकिन देश के करीब 2 करोड़ प्रवासी मजदूर हैं जो कई राज्यों में बिखड़े हैं। कितने लोग भूख से और कितने मजदूर बेहतर इलाज के अभाव में दम तोड़ दिए हैं, सरकार को इसका लेखा-जोखा नहीं है। देश का संपन्न तबका अपने घरों में है। कोई पूंजीपति किसी राज्य में फंसा हुआ नहीं है, कोई मंत्री भी नहीं।

हमारे जात धर्म अलग हो सकते हैं, लेकिन महान मजदूरों का जाति का नाम उत्पादन और धर्म का नाम निर्माण है। हम उनको मई दिवस के अवसर पर सलाम करते हैं। मजदूर है तो दुनिया है। किसान है तो हमें अन्न प्राप्त हो रहा है। मजदूरों को बचाने की जरूरत है। लॉकडाउन में हम भारतीय परंपरा को याद करें। हमारे यहां पश्चिम की तरह गुलामी प्रथा नहीं थी। यह विदेशी आंंक्राताओं के कारण विकसित हुआ। हमारे यहां राजा का धर्म प्रजा है। राजा का शरीर भी उसका खुद का नहीं होता है, ऐसी परिकल्पना थी। हमें भारत को बचाना है तो मजदूरों को बचाना होगा। श्रम ही हमारे राष्ट्र की धुरी है।

सोनू मिश्रा

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