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कबीर आज भी प्रासंगिक :: डॉ. स्वामी दिव्यानंद जी महाराज ( प्रख्यात ज्योतिषी एवं धर्मगुरु )

 

रांची , झारखण्ड | जून | 17, 2019 ::

जहां दया तहां धर्म है, जहाँ लोभ वहाँ पाप।
जहाँ क्रोध तहां काल है, जहाँ छमा वहां आप।
सभी संतों और महापुरुषों ने दया और क्षमा को धर्म का मूल माना है। लोभ, मोह, काम, क्रोध अंहकार आदि वे दुर्गुण हैं जो मनुष्य को धर्म और इंसानियत से दूर ले जाते हैं। जिस समय देश में धार्मिक कर्मकांड और पाखंड का बोलबाला था ऐसे समय में एक क्रांतिकारी संत, समाजसुधारक ने हिंदू और मुस्लिम दोनों के पाखंड के खिलाफ आवाज उठाई लोगों में भक्ति भाव का बीज बोया। यह संत थे कबीर। ज्येष्ठ मास की पूर्णिमा को संत कबीर, कबीरदास या कहें कबीर साहब की जयंती के रुप में मनाया जाता है
कबीर के जन्म के बारे में कोई भी प्रमाणिक तथ्य नहीं मिलता, कहीं उन्हें विधवा ब्राह्मणी की संतान माना जाता है जिसके जन्मलेते ही काशी के लहरतारा नामक स्थान पर छोड़ दिया गया जहां वह नीरु और नीमा मिले। पेशे से यह परिवार जुलाहा जाति से था। कबीर का जन्म सन् 1398 में माना जाता है। उनका लालन-पालन नीरु और नीमा के आंगन में ही हुआ। कबीर के काव्य में भी इसके कई उदाहरण मिलते हैं। “जाट जुलाहा नाम कबीरा” राम के नाम को सर्वजन तक पंहुचाने और सर्वव्यापी करने में कबीर का बहुत अधिक योगदान है। हालांकि उनका राम दशरथ पुत्र और विष्णु के अवतार से भिन्न निर्गुण राम है जो रोम रोम में रमा हुआ है। कबीर के बाद सगुण रुप में अवतारी राम के नाम का प्रचार-प्रसार तुलसीदास ने व्यापक रुप से किया।

कबीर आज भी प्रासंगिक हैं ……
कबीर आज भी प्रासांगिक लगते हैं कबीर ने मध्यकाल में जो बाते कही हैं आज 21वीं सदी में भी वे ऐसी लगती हैं जैसे उन्होंनें आज के बारे में ही लिखी हों। कबीर एक मानवता के पक्षधर हैं वे जीव हत्या का विरोध करते हैं। कबीर धर्म के विरोध में नहीं बल्कि धर्म के नाम पर होने वाले पाखंड के विरोध में खड़े हैं। वे जात-पात का विरोध करते हैं क्योंकि उनके सामने जात-पात के कारण होने वाले अन्याय के अनेक उदाहरण थे।
कबीर ने मानवता का संदेश देते हुए भक्ति की अलख को देश के विभिन्न हिस्सों में घूमकर जगाया है इसलिये आज भी लोग उनके पद गुनगुनाते हुए मिलेंगें। हिंदी साहित्य के विद्वान आचार्य हजारी प्रसाद द्वीवेदी तो कबीर को वाणी का डिक्टेटर कहते हैं। हालांकि कबीर भाषा की कोई जादूगरी नहीं जानते थे वे बस आम बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते जो सीधे लोगों के दिलों पर अपनी छाप छोड़ती थी। जिस काशी को मोक्षदायिनी कहा जाता है और जहां लोग अंतिम समय में अपने प्राण त्यागना पसंद करते हैं कबीर ने वहां प्राण त्यागना भी पसंद नहीं किया और वहां से कुछ दूर मगहर नामक स्थान पर चले गये वहीं सन् 1518 में उनका देहावसान हुआ।
कबीरा जब हम पैदा हुवे, जग हंसे हम रोये।
ऐसी करनी कर चलो, हम हंसे जग रोए।

कबीर ता उम्र जिन चीजों का विरोध करते रहे कालांतर में उनके अनुयायियों ने उनकी मूल शिक्षा को भूलाकर खुद कबीर को एक मूर्ति और मंदिर के रूप में स्थापित और जाति विशेष में बांधने की कोशिशें हुई हैं लेकिन कबीर तो खुलकर कहते हैं-

” मोको कहाँ ढूंढे रे बन्दे…..मैं तक तेरे पास में “

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