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अनंत से शून्य और शून्य से अनंत की ओर

अनंत से शून्य और शून्य से अनंत की ओर :: गुड़िया झा

बिहार राज्य में एक छोटा सा गांव था। उस गांव में एक जमींदार थे। जिनके रहन-सहन का स्तर और उस परिवार के संस्कार की पूरे गांव में एक अलग ही पहचान थी। वो परिवार अपने कर्तव्य और सत्य पथ पर चलने के लिए दूर-दूर तक जाना जाता था। उनके चार बेटे और एक बेटी थी। उनकी सोच काफी ऊंची थी। लेकिन वहां शिक्षा का स्तर ज्यादा ऊंचा नहीं था। जिसके कारण उनके बच्चों की पढ़ाई काफी उच्च स्तर की तो नहीं हो पायी लेकिन इतना ज्ञान तो अवश्य हो गया कि अपने बलबूते सबसे पहले उनके बड़े बेटे ने सरकारी नौकरी का पद हासिल किया। फिर धीरे-धीरे उन्होंने अपने दो छोटे भाइयों को भी अपने व्यवहार और अपनी पहुंच से सरकारी नौकरी के पद पर पहुंचा दिया। तीसरे नंबर के जो भाई थे उनकी पढ़ाई में ज्यादा रूचि नहीं थी। इसलिए उन्होंने अपनी क्षमता के अनुसार रोजगार की तलाश कर अपना जीवन यापन शुरू किया। बहन की शादी पहले ही हो चुकी थी। समय के साथ भाइयों की भी शादियां हो गयी। सभी के दो तीन बच्चे भी थे। इसी दौरान तीसरे नंबर के भाई की पत्नी का अचानक देहांत हो गया। फिर धीरे- धीरे सभी सामान्य हुए। रोजगार के कारण सभी भाई शहरों में ही किसी तरह अपना जीवन यापन करते थे। उस समय उनकी तनख्वाह भी ज्यादा नहीं थी जिस कारण वे अधिक दिनों पर ही अपने गांव आया करते थे। फोन का भी साधन नहीं था। इसलिए सभी भाई चिट्ठी के माध्यम से ही अपने पिता को गांव के घर को बचाने की गुहार लगाते थे। क्योंकि गांव में घर के सिवा उन लोगों के पास कुछ भी नहीं बचा था। तब तक उस गांव में एक नये जमींदार ने जगह ले ली, जो कोई और नहीं बल्कि बुजुर्ग जमींदार के अपने छोटे भाई थे। उस समय वे अपने बड़े भाई को अकेला और मजबूर पाकर धोखे से गांव के उस घर को अपने नाम करवा लिया। बड़े जमींदार को काफी यातनाओं का सामना करना पड़ा। उनके बच्चों को जब इस बात की जानकारी हुई, तो उन्हें बहुत दुख हुआ। चुप रहने के अलावा उनके पास कोई साधन नहीं था। क्योंकि वे आर्थिक रूप से उतने सम्पन्न नहीं थे कि उनका सामना कर सकते थे। फिर उन्होंने बारी-बारी से अपने माता-पिता को अपने पास रखने का फैसला किया। भले ही सम्पत्ति के नाम पर उनके पास कुछ भी नहीं बचा था। लेकिन बुजुर्ग जमींदार का समाज में सम्मान इतना था कि कोई भी उन्हें अपने पास रखने के लिए तैयार था। वे बहुत अच्छे ज्योतिष भी थे। दूर दराज गांव के बड़े-बड़े पंडित भी उनकी ज्योतिष विद्या का लोहा मानते थे। क्योंकि उनकी भविष्यवाणी हमेशा सत्य होती थी। कई गांव के लोग अपने यहां मांगलिक कार्यों के लिए उनसे ही सलाह लेते थे। अपनी उस सेवा के बदले उन्होंने कभी भी किसी से एक रुपये की भी मांग नहीं की। उनके इसी सरल स्वभाव के कारण वे लोगों के चहेते बने हुए थे। लेकिन आशियाना छिन जाने के कारण गांव से दूर वे शहर में अपने बच्चों के पास रहने लगे। धीरे-धीरे पोते, पोतियों में उनका समय बीतने लगा। उनके सभी बेटों के एक दो बेटे और एक-एक बेटियां थीं। बेटे और बहुओं के अलावा पोते,पोतियां भी उनको बहुत प्यार करते थे। समय ने एक बार फिर उनके धैर्य की परीक्षा ली। उनके एक पोते का आकस्मिक निधन हो गया। पूरा परिवार फिर से एक बार बिखर गया। फिर शून्य से ऊपर बढ़ने की प्रक्रिया शुरू हुई। उन्होंने अपने बच्चों में कभी भी भेदभाव नहीं किया। उनकी महानता का आलम ये था कि परिवार में जब भी किसी का जन्मदिन होता था, तो उनके पास देने के लिए 11 या 21 रुपये से ज्यादा पैसे नहीं होते थे। फिर भी अपने पास कुछ न रख कर वो अपने बच्चों को ही वे जन्मदिन के उपहार स्वरूप रुपये दे देते थे। किराये के मकान में भी उनके बच्चों को काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ता था। आर्थिक स्थिति ठीक नहीं होने के कारण उन्होंने अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में ही शिक्षा दिलाई। धीरे-धीरे उनके भी बच्चे बड़े होने लगें। उस समय बच्चों ने भी अपनी काबिलियत और मेहनत के बलबूते अच्छे संस्थानों में नौकरियां हासिल की। समय के साथ साथ परिवार की स्थिति में सुधार होने लगा। उस परिवार में बेटियों की शादी सबसे बड़ी चुनौती थी। क्योंकि समाज ने रस्मों के नाम पर इतना बड़ा आडम्बर बना लिया था कि सभी को यह एक आंदोलन जैसा लगता था। बहुत मुश्किलों के बाद एक-एक कर बेटियों का विवाह तय हुआ। वो समय भी आ गया जब बुजुर्ग जमींदार को बहुत ही बेसब्री से उस दिन का इंतजार था कि वे अपनी पोती का कन्यादान अपने हाथों से करेंगे। क्योंकि उनकी उम्र 90 वर्ष की हो चुकी थी। उनके बेटों ने भी उनकी इस भावना का बहुत ध्यान रखा और उन्होंने अपनी दो पोतियों का कन्या दान अपने हाथों से किया। कुछ समय के बाद उन्होंने अपनी बड़ी पोती के तीन महीने के बेटे को भी अपनी गोद में लिया और उसे बहुत आशीर्वाद दिया तथा उसके पांच दिनों के बाद उनकी मृत्यु हो गई।
उनके देहांत के बाद सभी अपने आप को अकेला महसूस करने लगे। धीरे-धीरे समय बीतता गया और उनके एक दो पोतों की शादियां भी हो गई। बहुयें भी काफी सुयोग्य मिलीं। वो कहते हैं ना कि किया हुआ अच्छा कर्म कभी बेकार नहीं जाता। जिस गांव से बच्चों का आशियाना छिन गया था, आज उसी गांव से महज कुछ ही दूरी पर उनके पोतों ने आलीशान आशियाना बना डाला। बच्चे अपने दादा-दादी के जाने के बाद भी उन्हें काफी याद करते हैं।इतना ही नहीं, उनके पोते और बहुयें भी अपने माता-पिता की भरपूर सेवा करते हैं।
निष्कर्ष- समय और परिस्थितियों पर हमारा वश नहीं चलता है। उस परिवार ने अपने जीवन में काफी कष्ट और संघर्ष देखा। फिर भी किसी ने अपने संस्कार को नहीं छोड़ा। अपनी मेहनत और ईमानदारी के कारण उन्होंने वो सभी मुकाम हासिल किया जो उन्हें सपने जैसा लगता था। उन्होंने धैर्य और सहनशीलता का दामन कभी नहीं छोड़ा।
इस कहानी के सभी पात्र काल्पनिक हैं।

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