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इतिहास में आज :: काकोरी काण्ड के नायक शहीद रामप्रसाद बिस्मिल का जन्म [ 11 जून 1897 ]

जून | 10, 2017 ::  “शहीद रामप्रसाद ‘बिस्मिल’ बड़े होनहार नौजवान थे। गज़ब के शायर थे। देखने में भी बहुत सुन्दर थे। योग्य बहुत थे। जानने वाले कहते हैं कि यदि किसी और जगह या किसी और देश या किसी और समय पैदा हुए होते तो सेनाध्यक्ष बनते। आपको पूरे षड्यन्त्र का नेता माना गया। चाहे बहुत ज्यादा पढ़े हुए नहीं थे लेकिन फिर भी पण्डित जगतनारायण जैसे सरकारी वकील की सुध-बुध भुला देते थे। चीफ कोर्ट में अपनी अपील खुद ही लिखी थी, जिससे कि जजों को कहना पड़ा कि इसे लिखने में जरूर ही किसी बुद्धिमान व योग्य व्यक्ति का हाथ है।”

रामप्रसाद बिस्मिल का जन्म 11 जून 1897, को शाहजहाँपुर, उत्तर प्रदेश में हुआ था।
राम प्रसाद बिस्मिल के नेतृत्व में 10 लोगों ने सुनियोजित कार्रवाई के तहत यह कार्य करने की योजना बनाई। 9 अगस्त, 1925 को लखनऊ के काकोरी नामक स्थान पर देशभक्तों ने रेल विभाग की ले जाई जा रही संग्रहीत धनराशि को लूटा। उन्होंने ट्रेन के गार्ड को बंदूक की नोक पर काबू कर लिया। गार्ड के डिब्बे में लोहे की तिज़ोरी को तोड़कर आक्रमणकारी दल चार हज़ार रुपये लेकर फरार हो गए। इस डकैती काण्ड में अशफाकउल्ला खान, चन्द्रशेखर आज़ाद, राजेन्द्र लाहिड़ी, सचीन्द्र सान्याल, मन्मथनाथ गुप्त, रामप्रसाद बिस्मिल आदि शामिल थे। काकोरी षड्यंत्र मुक़दमे ने काफ़ी लोगों का ध्यान खींचा। इसके कारण देश का राजनीतिक वातावरण आवेशित हो गया।
सभी प्रकार से मृत्यु दंड को बदलने के लिए की गयी दया प्रार्थनाओं के अस्वीकृत हो जाने के बाद बिस्मिल अपने महाप्रयाण की तैयारी करने लगे। अपने जीवन के अंतिम दिनों में गोरखपुर जेल में उन्होंने अपनी आत्मकथा लिखी। फांसी के तख्ते पर झूलने के तीन दिन पहले तक वह इसे लिखते रहे। इस विषय में उन्होंने स्वयं लिखा है-
‘आज 16 दिसम्बर, 1927 ई. को निम्नलिखित पंक्तियों का उल्लेख कर रहा हूँ, जबकि 19 दिसम्बर, 1927 ई. सोमवार (पौष कृष्ण 11 संवत 1984) को साढ़े छ: बजे प्रात: काल इस शरीर को फांसी पर लटका देने की तिथि निश्चित हो चुकी है। अतएव नियत सीमा पर इहलीला संवरण करनी होगी।’
उन्हें इन दिनों गोरखपुर जेल की नौ फीट लम्बी तथा इतनी ही चौड़ी एक कोठरी में रखा गया था। इसमें केवल छ: फीट लम्बा, दो फीट चौड़ा दरवाज़ा था तथा दो फीट लम्बी, एक फीट चौड़ी एक खिड़की थी। इसी कोठरी में भोजन, स्नान, सोना, नित्य कर्म आदि सभी कुछ करना पड़ता था। मुश्किल से रात्रि में दो चार घण्टे नींद आ पाती थी। मिट्टी के बर्तनों में खाना, कम्बलों का बिस्तर, एकदम एकान्तिक जीवनचर्या यही उनके अंतिम दिन थे। इस सबका उन्होंने अपनी आत्मकथा में बड़ा ही मार्मिक वर्णन किया है।
फांसी के एक दिन पूर्व बिस्मिल के पिता अंतिम मुलाकात के लिए गोरखपुर आये। कदाचित् माँ का हृदय इस आघात को सहन न कर सके, ऐसा विचार कर वह बिस्मिल की माँ को साथ नहीं लाये। बिस्मिल के दल के साथी शिव वर्मा को लेकर अंतिम बार पुत्र से मिलने जेल पहुँचे, किन्तु वहाँ पहुँचने पर उन्हें यह देखकर आश्चर्यचकित रह जाना पड़ा कि माँ वहाँ पहले ही पहुँची थीं। शिव वर्मा को क्या कहकर अंदर ले जाएं, ऐसा कुछ सोच पाते, माँ ने शिव वर्मा को चुप रहने का संकेत किया और पूछने पर बता दिया। ‘मेरी बहिन का लड़का है।’ सब लोग अंदर पहुँचे, माँ को देखते ही बिस्मिल रो पड़े। उनका मातृ स्नेह आंखों से उमड़ पड़ा, किन्तु वीर जननी माँ ने एक वीरांगना की तरह पुत्र को उसके कर्तव्य का बोध कराते हुए ऊँचे स्वर में कहा-
‘मैं तो समझती थी कि मेरा बेटा बहादुर है, जिसके नाम से अंग्रेज़ सरकार भी कांपती है। मुझे नहीं पता था कि वह मौत से डरता है। यदि तुम्हें रोकर ही मरना था, तो व्यर्थ इस काम में क्यों आए।’
तब बिस्मिल ने कहा, ‘ये मौत के डर के आंसू नहीं हैं। यह माँ का स्नेह है। मौत से मैं नहीं डरता माँ तुम विश्वास करो।’ इसके बाद माँ ने शिव वर्मा का हाथ पकड़कर आगे कर दया और कहा कि पार्टी के लिए जो भी संदेश देना हो, इनसे कह दो। माँ के इस व्यवहार से जेल के अधिकारी भी अत्यन्त प्रभावित हुए। इसके बाद उनकी अपने पिता जी से बातें हुईं, फिर सब लौट पड़े।
19 दिसम्बर, 1927 की प्रात: बिस्मिल नित्य की तरह चार बजे उठे। नित्यकर्म, स्नान आदि के बाद संध्या उपासना की। अपनी माँ को पत्र लिखा और फिर महाप्रयाण बेला की प्रतिज्ञा करने लगे। नियत समय पर बुलाने वाले आ गए। ‘वन्दे मातरम’ तथा ‘भारत माता की जय’ का उद्घोष करते हुए बिस्मिल उनके साथ चल पड़े और बड़े मनोयोग से गाने लगे-
मालिक तेरी रजा रहे और तू ही तू रहे।
बाकी न मैं रहूँ न मेरी आरजू रहे।।
जब तक कि तन में जान रगों में लहू रहे।
तेरा ही ज़िक्र या तेरी ही जुस्तजू रहे।।
फांसी के तख्ते के पास पहुँचे। तख्ते पर चढ़ने से पहले उन्होंने अपनी अंतिम इच्छा व्यक्त की-
“I Wish the downfall of British Empire”
अर्थात ‘मैं ब्रिटिश साम्राज्य का नाश चाहता हूँ’ इसके बाद उन्होंने परमात्मा का स्मरण करते हुए निम्नलिखित वैदिक मंत्रों का पाठ किया-
मंत्रों का पाठ करते हुए वह फांसी के फंदे पर झूल गये।

शहीद होने से एक दिन पूर्व रामप्रसाद बिस्मिल ने अपने एक मित्र को निम्न पत्र लिखा –
“19 तारीख को जो कुछ होगा मैं उसके लिए सहर्ष तैयार हूँ। आत्मा अमर है जो मनुष्य की तरह वस्त्र धारण किया करती है।
” यदि देश के हित मरना पड़े, मुझको सहस्रो बार भी।
तो भी न मैं इस कष्ट को, निज ध्यान में लाऊं कभी।।
हे ईश! भारतवर्ष में, शतवार मेरा जन्म हो।
कारण सदा ही मृत्यु का, देशीय कारक कर्म हो।।
मरते हैं बिस्मिल, रोशन, लाहिड़ी, अशफाक अत्याचार से।
होंगे पैदा सैंकड़ों, उनके रूधिर की धार से।।
उनके प्रबल उद्योग से, उद्धार होगा देश का।
तब नाश होगा सर्वदा, दुख शोक के लव लेश का।।
सब से मेरा नमस्कार कहिए,
तुम्हारा
“बिस्मिल”
रामप्रसाद बिस्मिल की शायरी, जो उन्होने कालकोठरी में लिखी और गाई थी, उसका एक-एक शब्द आज भी भारतीय जनमानस पर उतना ही असर रखता है जितना
उन दिनो रखता था। इस शायरी का हर शब्द अमर है:

सरफरोशी की तमन्ना, अब हमारे दिल में है।
देखना है जोर कितना, बाजुए कातिल में है।।
वक्त आने दे बता देंगे तुझे ऐ आसमां
हम अभी से क्या बताएं, क्या हमारे दिल में है।।
और:
दिन खून के हमारे, यारो न भूल जाना
सूनी पड़ी कबर पे इक गुल खिलाते जाना।

मातृभूमि की स्वतंत्रता के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर देने वाले वीरों में पंडित रामप्रसाद बिस्मिल का नाम विशेष आदर से लिया जाता है। बिस्मिल सदृश क्रांतिकारी वीरों के बलिदान का भारत की स्वतन्त्रता प्राप्ति में विशेष योगदान है।
भारत की मिट्टी का कण-कण सदैव पंडित रामप्रसाद बिस्मिल तथा उनके साथी क्रांतिकारियों का ऋणी रहेगा।

आलेख: कयूम खान, लोहरदगा।

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