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आदिवासियों के पारंपरिक औषधीय ज्ञान का इतिहास : प्रशांत जयवर्द्धन

राची, झारखण्ड | जुलाई | 12, 2023 :: आदिवासियों का ज्ञान भण्डार पुरातन काल से अपने वास्तविक रूप में विद्यामान रही है।
मानव जीवन के जन्म से अंत तक के प्रायः-प्रायः सभी तथ्यात्मक तत्व आदिवासियों की मौलिक इतिहास में उपलब्ध रही है और इसी आधार पर हम कह सकते हैं कि हर क्षेत्र एवं हर विद्या में आदिवासियों का ज्ञान भण्डार समृद्ध रहा है।

झारखण्ड का आदिवासी समाज अपनी औषधीय आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए बाहरी दुनिया पर आश्रित नहीं रहा है
आदिवासी समाज अपनी औषधीय आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए पूर्णतः प्रकृति पर निर्भर रहा है
पारंपरिक औषधीय ज्ञान से परिपूर्ण आदिवासी समुदाय, अपनी औषधीय आवश्यकताओं की पूर्ति अपने पारंपरिक ज्ञान से करता रहा है जिससे अन्य समूह भी लाभान्वित होते रहे हैं।
आदिवासियों का औषधीय ज्ञान का विस्तार विश्व के अन्य समूहों और दूसरे-दूसरे भागों में हुआ है और ऐतिहासिक रूप से पारंपरिक औषधीय ज्ञान में पारंगत आदिवासी समाज अपने ही ज्ञान से दूर होता गया।
आज स्थिति ऐसी हो गई है कि आदिवासी समाज अपने ज्ञान से अनभिज्ञ होता जा रहा है और इसी ज्ञान को जानकर शोध करके अ-आदिवासी शक्तियाँ अपने औषधीय ज्ञान को बढ़ाते हुए व्यवसायिक रूप प्रदान करते जा रहे हैं।

झारखण्ड के आदिवासी क्षेत्र निरंतर बाहरी शक्तियों का हस्तक्षेप झेलते-झेलते अपने पारंपरिक क्रिया-कलापों से दूर होते जा रहे हैं।
एक लम्बें समय तक बाहरी आक्रमण एवं विदेशी ताकतों की सत्ता में काबिज रहने के कारण आदिवासी क्षेत्र प्रयोगशाला एवं आदिवासी इसके अवयव बनते रहे है जबकि आदिवासी ही वास्तव में पारंपरिक औषधीय ज्ञान के जन्मदाता रहे हैं।

आदिवासियों का विस्तृत एवं उपयोगी औषधीय ज्ञान का ही देन हैं कि आज के ‘‘साइड इफेक्ट’’ से ग्रसित औषधीय प्रणाली की अपेक्षा देशी चिकित्सा/जुड़ी बुटी से इलाज और फल-फूल, कन्दमूल की ऋषि-मुनियों वाली परंपरिक औषधीय ज्ञान से हानिरहित लाभकारी औषधीय प्रणाली पुनः जीवित हो रही हैं एवं बहुलता से इनका प्रयोग हो रहा है।

पारंपरिक औषधीय ज्ञान की व्यापकता इसी से समझी जा सकती है कि आज प्रायः-प्रायः विश्व के हर हिस्से में पारंपरिक चिकित्सा पद्धति का प्रचार-प्रसार और उपयोगिता बढ़ी है।

प्रकृति और आदिवासी जनमानस का अन्योश्रय संबंध है।
प्रकृति आदिवासी जन मानस की जीवन प्रणाली है तो आदिवासी पूर्णतः प्रकृति पर आधारित हैं।
आदिवासियों के लिए जंगली पेड़-पौधों का दायरा काफी विस्तृत है इसमें एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा औषधीय पेड़-पौधों का है।
इन पेड़-पौधों से जुड़ाव और लाभ की एक पुरानी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि है।
आदिवासी इस ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के केन्द्र में है।
भारतीय ग्रंथों में जड़ी-बूटी तथा इसके ज्ञाता का गुणगान भरा पड़ा है।
झारखण्ड के सुदूर जंगलों और पहाड़ियों की तलहटी में निवास करने वाली विभिन्न जनजातियों के बीच जिस प्रकार के औषधीय पौधों (इथिनिक मेडिसनल प्लांट) का ज्ञान है तथा जिस तरह से इन पौधों से असाध्य रोग भी साध्य हो जाता है।

झारखण्ड में कुल 32 प्रकार की जनजातियां निवास करती हैं, जिसमें कुछ बहुसंख्यक हैं तो कुछ अल्पसंख्यक, कुछ जनजातियां तो इन दिनों भी खाद्य संग्रह तथा आखेट के साथ-साथ स्थानांतरित कृषि पर ही आश्रित हैं, जिसके कारण इन्हें यहां आदिम जनजाति की श्रेणी में रखा गया है, जिनकी संख्या आठ है।
सौरिया पहाड़िया जो राजमहल की पहाड़ियों पर निवास करती है तथा बिरहोर जो मुख्य रूप से हजारीबाग, गुमला तथा रांची के जंगलों में रहते हैं इसी आदिम जनजाति के अंतर्गत आते हैं।
इसी तरह पशुपालन, कृषि और मजदूरी पर पूर्ण रूप से निर्भर बेदिया जनजाति झारखण्ड की बहुसंख्यक जनजाति है, जो हजारीबाग के रामगढ़, गोला, मांडू, पतरातू तथा रांची के सिल्ली और ओरमांझी में निवास करती है।
मानव वैज्ञानिक अध्ययनों के आधार पर यह बात उभर कर सामने आई है कि लगभग 288 प्रकार की जंगली जड़ी-बूटी इन लोगों के बीच है जो मानव कल्याण के लिए संजीवनी बूटी के समान है, बिरहोर के बीच हत्था-जोड़ी तथा प्रेम जोड़ी नामक एक ऐसी जड़ी है, जिससे पति-पत्नी तथा प्रेमी प्रेमिका के बीच उपजे क्षणिक मतभेदों तथा कटुता तो दूर होती ही है साथ ही दोनों के बीच और भी अधिक प्यार परवान चढ़ता है।

जड़ी-बूटियां और उनसे इलाज:
1. पाताल कोहड़ा, कुजरी लत्तर का तेल पुराना सीम के लत्तर की जड़-टीबी

2. मिंजू चुटिया की जड़ तथा बरगद के तना से निकली नयी जड़ मिसरीके साथ सेवन-पतला पैखाना
होने पर

3. उड़हुल फूल, सतूरी, केवामला, सिमल कन्दा, कारी जिरी, उजला फूलवाला पलाश – धात की बीमारी तथा प्रदर, जॉन्डिस

4. पान पत्ता की जड़ गुलैची फल, गोलकी, सिमजगा, मिंजूर गोड़ज्ञ-गर्भ निरोधक सदा के लिए

5. कलिहारी के लत्तर की जड़-गर्भपात को ठीक करने में

6. तीजा का जड़ – पेट की पथरी गलाने में

7. बंेग साग – पीला पेशाब या पेट की गर्मी दूर करने में

8. मोथा घास की जड़ – बवासीर

9. डुमर का फल, मिसरी – बवासीर

10. दूध, राज घास, पपीता – मां के दूध की कमी दूर करने हेतु

11. पलास का बीज, चिरौता – पेट के कीड़े का नाश करता है

12. छतनी, छटवन की छाल – शूल तथा पाचन क्रिया को ठीक करने में

13. निउरी की छाल – हैजा, निमोनिया

14. कुरसो के बीज का तेल तथा पूरण कंदा – गठिया में

15. इसरैर की जड़, सर्पगंधा, चपौट, सालमणी – सांप के विष को उतारने में

16. तेजोमला – अतिसार

17. भेंगरा – पिल्ही

18. ब्राह्मी – मस्तिष्क के रोगों में

19. काली बसाक का पता – खांसी

20. काली मसूली – हड्डी के चोट में

21. अख गंध, इच धपई – शक्ति वर्धक

22. झुरझुरी – ज्वर नाशक

23. बन प्याज – हृदय रोग

इसके अलावा कुसुम, अमलतास, मलकगनी, गुरिच, वराही कंदा भूआमला, सरफूला, तितमांट, भेंगराज, करंज, खैर, पाकड़, बेल, अर्जुन, आवंला, गोला-गोला साग, सरोंट साग, सिंदुआर साग, पीपल टुस्सी, टेवल कंदा, पेचकी, पौरेया फूल आदि भी रोगों के इलाज में काम आते है।

आदिवासियो के पारंपरिक औषधीय ज्ञान के प्राचीन ऐतिहासिक तथ्यों के अध्ययन विश्लेषण से यह तो स्पष्ट हो जाता है कि आदिवासियों को जितना लगाव प्रकृति से है इतना ही खुलकर प्रकृति ने भी इन पर अपनी विशेष कृपा दृष्टि रही है। यही कारण है कि प्रकृति की हर सुविधा के साथ आदिवासियों को संपूर्ण औषधीय सुविधा प्रकृति प्रदत्त है परन्तु इससे भी बड़ी बात यह है कि आदिवासियों में प्राचीन औषधीय पौधों एवं उपयोगिता का भी जबरजस्त ज्ञान है और यह व्यवहारिक ज्ञान प्राचीन ऐतिहासिक काल खण्ड से आज तक किसी न किसी राज्य में विद्यामान हैं।
अतः यह कहना सर्वथा उचित है कि आदिवासियों में पारंपरिक और ऐतिहासिक रूप से औषधीय पेड़-पौधों के व्यवहार एवं औषधीय पौधों का अकूत ज्ञान भण्डार आदिवासियो के पास विद्यामान है।

– प्रशांत जयवर्द्धन

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