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अक्षयफला मानी जाती है अक्षयतृतीया :: डॉ.कुसुम लुनिया

रांची, झारखण्ड | अप्रैल | 26, 2020 :: भारतवर्ष पर्व- त्यौंहारों का देश है। यंहा के विविध त्यौंहार संस्कृति को जीवन्त और लोकजीवन को सरस बनाये रखते हैं I
भारतीय नववर्ष प्रारंभ विक्रम संवत् से होता है, चैत्र और बैसाख जिसका पहला मास युगल है ।
बैसाख की शुक्ला तृतीया “अक्षयतृतीया “ कहलाती है ।लोक और लोकोत्तर दोनों परंपराओं में अक्षय तृतीया का बहुत महत्व है।
पौराणिक मान्यता के अनुसार चार युग होते हैं :
कृत,
त्रेता
द्वापर और
कलियुग।

त्रेतायुग का आरंभ अक्षय तृतीया से मानते हुए भारतीय पंचांगों में इसे त्रेता युगादि तिथि का सम्मान दिया जाता है ।

भविष्य पुराण में भी कहा गया है:-
या मन्वाधा युगायाश्र्चय
तिवयस्तासु मानव: ।
स्न्नात्वा हुत्वा व जप्त्वा च
दत्यानन्त फलं लमेत।।
अर्थात इस दिन किया गया तीर्थ भ्रमण, तप और दान अंनत फलदायी होता है।
भविष्योत्तरपुराण में कृष्ण और अर्जुन के संवाद के माध्यम से अक्षय तृतीया का महत्व बताते हुए कृष्ण कहते हैं कि यह तिथि प्रत्येक पुण्य कार्य का अक्षय फल देने वाली है I
विष्णु धर्मोत्तर पुराण में कहा गया है कि इस दिन उपवास के सुकृत का अक्षय फल मिलता है।
जैन परम्परानुसार प्रथम तीर्थकर आदिनाथ ऋषभदेव का इस दिन से महत्वपूर्ण संबध है।
उन्होने प्रागएतिहासिक काल में पहले राजा ऋषभ के रूप में कर्मयुग का प्रर्वतन किया ।
उसके बाद धर्मयुग का प्रर्वतन करने के लिए साधनापथ स्वीकार किया।
लोग दान विधि से अनजान थे।सोने गहने हाथी घोडे सब आफर करते पर भोजन का कोई नहीं पुछता।
अपने अभिनिष्क्रमण के पश्चात ऋषभदेव के एक वर्ष और पच्चीस
दिन घोर तपस्या में बीते।निर्जल निराहार अपने श्वासोश्वास के माध्यम से सूर्य की किरणों और हवा से अपने शरीर के लिए आवश्यक तत्व ग्रहण कर श्रेष्ठ भविष्य की सोच लिए वे पैदल विचरण करते-करते हस्तिनापुर पंहुचे।
वहां राजमहल के गवाक्ष बाहुबली के पौत्र राजकुमार श्रेयासं बैठे थे,उन्हे देख वे राजमहल से नीचे उतर नंगे पांव दौडे और ऋषभ को रोक चरणो में नतमस्तक हो भिक्षा ग्रहण की प्रार्थना करने लगे।असीम भक्तिभाव को देख भगवान राजप्रासाद की तरफ मुड गये।उस दिन प्रात:काल किसानो से उपहार रूप में ताजे गन्ने के रस के 108 घडे आये हुए थे।
श्रेयासं की प्रार्थना पर ऋषभदेव ने हाथों की अंजुली बनाकर मुख पर टिका दी।
श्रेयासं ने एकधार इक्षुरस उडेलना शुरू किया।अनासक्त भाव से ग्रहण करते हुए ऋषभ ने निश्छिद्र अंजली से एक बूंद रस भी नीचे नहीं गिरने दिया।
दीर्घतप का पारणा होते ही अहोदानम्-अहोदानम् की ध्वनियां गुंज उठी वह दिन अक्षय बन गया।तभी से आज तक जैन समाज में वर्षी तप और उसके पारणे की परम्परा चली आरही है।

हिन्दी विश्वकोश के अनुसार इस तिथि का किसानो के लिए बहुत महत्व है।
इस दिन वे खेतों में भावी फसल के लिए प्रथम बीजारोपण करते हैं।राजस्थान एवं महाराष्ट्र में इस दिन अक्षत धान जैसे मुंग ,चावल आदि को साबुत पकाकर खाने व खिलाने की परम्परा है।
स्कंद पुराण के प्रमाण के आधार पर अक्षय तृतीया भगवान विष्णु के दशावतारों के छठे अवतार भृगुनन्दन परशुराम की जयन्ति भी है।
अत: इस अवतार तिथि का भी बहुत महत्व है।इस दिन को विवाह-शादी के लिए भी अतिशुभ मुहर्त माना जाता है।
कुल मिलाकर इस प्रकार एक पक्ति में कहे तो त्याग तपस्या,व्रत दान,विवाह आदि सभी **शुभ कार्यो में अक्षयफला मानी जाती है अक्षय तृतीया*।
आज के परिपेक्ष्य में यही कहा जा सकता है

जीवन है संग्राम वीरता से जीना सीखे हम,
अमृत-विष दोनो समता से पीना सीखे हम।
लाभ-अलाभ,हर्ष शौक में सम बनजाये हम,
अक्षय तृतीया से स्वास्थ्य सबल बनाये हम।

डॉ.कुसुम लुनिया
kdlunia@yahoo.com
9891947000

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