आलेख़

सन्तुष्टि बिना कामयाबी अधूरी : गुड़िया झा

कामयाबी की खुशी हो या दुख से उबरने की कोशिश अपने मन में सन्तुष्टि का भाव लाये बिना अधूरी ही रहती है। आगे बढ़ने के लिए वर्तमान की कोशिशों से संतुष्ट होना कहीं भी और कभी भी रूकावट नहीं बनता है। हमारे आत्मविश्वास को बढ़ाने के लिए हमारी कोशिशें जीवन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।

हमने कई बार अंगूर खट्टे हैं वाली कहानी सुनी है। पहुंच से बाहर कोई भी चीज होने पर यह मुहावरा अकसर बोला जाता है। हम सब कभी न कभी अपने लक्ष्य पूरा करने में असफल रहते हैं। अपने मन को हमें समझाना पड़ता है और अपने मन को समझाकर आगे बढ़ना गलत नहीं है। अपने मन को समझा सकना भी कोई छोटी बात नहीं है। कई बार जो है, उसे मान लेना ही, आगे बढ़ने के लिए सबसे जरूरी होता है। फिर यह जरूरी नहीं कि सबकुछ हमारी पहुंच से बाहर ही हो। कभी -कभी हम कुछ देर के लिए ठहरते हैं, खुद पर काम करते हैं और फिर कामयाब भी हो जाते हैं। कई बार हमारा लक्ष्य भी गलत होता है। तब लाख कोशिश करने पर भी सफलता नहीं मिलती है। हम समझ ही नहीं पाते हैं कि यह हमारा लक्ष्य नहीं है। हम एक ही बात पर खुद को अटकाये रखते हैं।

वास्तव में संतुष्ट होने पर ही हमें यह समझ आता है कि जो हम हैं या जो हमारे पास है, उसका क्या महत्त्व है। कई बार हम सोचते हैं कि थोड़ा और हो जायेगा तो कोई कमी नहीं रहेगी। हम संतुष्ट हो जायेंगे। पर, ऐसा होता नहीं है।

19 वीं सदी में ‘ प्रिंस ऑफ प्रिचर्स ‘ अमेरिकी धर्म उपदेशक चार्ल्स स्परजियन ने कहा था, जो आज है, अगर आप उससे संतुष्ट नहीं हैं तो आगे उसका दुगना भी हो जायेगा, तो भी संतुष्टि नहीं होगी।

संतुष्टि, बड़ा सोचने और उसे हासिल करने से नहीं रोकती। दिक्कत तब होती है, जब हम किसी से तुलना करते हैं।दूसरो के सामने खुद को साबित करना चाहते हैं। कई बार हम इसी दौड़ में खुद के साथ सख्ती करने लगते हैं। अपना सामान्य जीवन जीना भूल जाते हैं। बहुत कुछ पाने की चाह होना बुरा नहीं है। पर, वह नहीं मिलने पर निराशा में डूब जाना गलत है। दूसरे से कम या ज्यादा होने का भाव मन को स्थिरता प्रदान नहीं करता है। जब कोई अभाव हमें महसूस नहीं होता है तो पूरी दुनिया अपनी लगती है।

जब हम ज्यादातर समय उस दिशा में लगाते हैं, जो हमारे मूल्यों से मेल नहीं खाती है, तो हम किसी भी परिस्थिति का सामना बेहतर तरीके से कर पाते हैं। दया, करुणा, ईमानदारी, अच्छे रिश्ते, सेहत, पैसा, नाम आदि कुछ भी हमारे मूल्य हो सकते हैं। जितना हम अपने मूल्यों के करीब जिंदगी जीते हैं, उतना ही अपनी कोशिशों से संतुष्ट हो पाते हैं। अपना काम बेहतर कर पाते हैं।

जितना हम सोचते हैं, हमारी जरूरतें उससे कहीं ज्यादा कम होती हैं। फिर संतुष्टि, मजबूरी या मन मसोसकर रहना नहीं है। यह मजबूती का भाव है। संतुष्टि के साथ ही हम सही मायनों में तब जीते हैं जब यह सोचते हैं कि जो है, ठीक है या जो होगा देखा जायेगा, यह एक मजबूत मन ही कह सकता है। संतुष्ट रहने वाले आत्मविश्वास को अपना दोस्त मानते हैं और संतुष्टि को बड़ा खजाना।

 

गुड़िया झा

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