आलेख़

अंग्रेजों से लड़ते लड़ते वीरगति को प्राप्त हुई झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई [ 18 जून 1858 ]

जून | 18, 2017 :: झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई इतिहास इस बात का साक्षी है, कि भारत की धरती पर अनेक वीरों एवं वीरांगनाओं ने जन्म लिया जिन्होंने अपने कर्मों के बल पर विश्व में अपना नाम रोशन किया तथा सदा के लिए अमर तौ गए । ऐसी वीरागनाओं में झांसी की रानी लक्ष्मीबाई का नाम अग्रणी है। उस वीरांगना के क्रिया-कलापों को याद करक आज भी हृदय पुलकित हो उठता है।

रानी लक्ष्मीबाई का जन्म 18 नवम्बर 1835 ईo को वाराणसी में हुआ। इनके पिता का नाम मोरोपन्त एवं माता का नाम भागीरथी था। लक्ष्मीबाई का बचपन का नाम मन्नू था। बचपन से ही उसे गुड्डे-गुड़ियों से खेलना, नाच–तमाशा देखना अच्छा नहीं लगता था। उसे घुड़सवारी करना, तलवारबाजी करना, निशानेबाजी आदि चीजें अच्छी लगती थीं। इनकी माता बचपन से ही उन्हें वीरांगनाओं की कहानियां सुनाती रहती थी। उन कहानियों से प्रेरित होकर ही मन्नु के हृदय मैं बचान से ही स्वदेश प्रेम एवं वीरता की भावना कूट-कूट कर भरी हुई थी। मन्नू जब छह वर्ष की हुई तो इनकी माता का देहांत हो गया। इनका लालन-पालन बाजीराव पेशवा के संरक्षण में हुआ।
मन्नू जब कुछ बड़ी हुई तो इनका विवाह झाँसी के राजा गंगाधरराव से कर दिया गया य। विवाह पश्चात मन्नू लक्ष्मीबाई बन गई। कुछ समय पश्चात लक्ष्मीबाई के घर एक पुत्र ने जन्म’ लिया। परन्तु -कुछ ही समय बाद उसकी मृत्यु हो गई। उसके पश्चात गंगाधरराव भी बीमार रहने लगे तथा उनकी मृत्यु हो गई। रानी ने एक बच्चा गोद लेने की सोची। उस समय बच्चा गोद लेने से पहले ब्रिटिश सरकार से मान्यता लेनी पड़ती थी। उन्होंने झांसी को पुत्र गोद लेने को मान्यता नहीं दी  तथा झांसी को ब्रिटिश राज्य में मिलाने का ऐलान कर दिया। जिस कारण रानी में अंग्रेजों के प्रति घृणा एवं रोष की ज्वाला सुलगने लगी। रानी ने अंग्रेजों पर आक्रमण करने के लिए अपनी सेना तैयार की जिसका परिणाम भारत का प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम सन् 1857 ई. में हुआ। यह चिंगारी मेरठ से प्रारंभ हुई थी तथा फैलती हुई दिल्ली तथा लखनऊ तक पहुंची। अंग्रेजों ने झांसी पर आक्रमण कर दिया। रानी ने उनका जवाब डटकर दिया। परन्तु झांसी के कुछ गद्‌दार अंग्रेजों के साथ जा मिले थे, जिस कारण झांसी को हार का सामना करना पड़ा। रानी ने कालपी जाकर पेशवा से मिल जाने का निश्चय किया। जब वे कालपी जा रहीं थीं तो अंग्रेजों को इसकी खबर लग गई। उन्होंने रानी का पीछा किया तथा घमासान युद्ध हुआ। रानी उनका सामना करती रही तथा किसी तरह कालपी पहुंच गई। कालपी के राजा ने रानी की सहायता अपनी सेना देकर की। उस सेना के सहयोग से रानी ने अंग्रेजों पर आक्रमण किया। परन्तु इस बार भी रानी को असफलता ही प्राप्त हुई। रानी सहायता के लिए ग्वालियर नरेश के पास अपनी सेना सहित पहुंची। गवालियर ने महारानी तथा उसकी सेना पर गोलाबारी शुरू कर दी। रानी की सेना ने अपनी बहादुरी से ग्वालियर के किले पर आक्रमण करके उसे अपने कब्जे में ले लिया परन्तु अंग्रेजों ने रानी का पीछा यहां भी नहीं छोड़ा। उन्होंने ग्वालियर के किले को घेर लिया। रानी ने उनका डटकर सामना किया। दोनों हाथों से तलवार से वार करती हुई मुंह में घोड़े की लगाम लेकर अंग्रेजों को चीरती काटती आगे बढ़ती गई। रानी ने बड़ी वीरता से अंग्रेजों के वार का जवाब दिया और वह लड़ती-लड़ती 18 जून 1858 को वीरगति को प्राप्त हो गई। उन्होंने अंग्रेजों के सामने कभी घुटने नहीं टेके। मृत्युपर्यन्त वह अंग्रेजों का डटकर मुकाबला करती रही।
झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई इतिहास इस बात का साक्षी है, कि भारत की धरती पर अनेक वीरों एवं- वीरांगनाओं ने जन्म लिया जिन्होंने अपने कर्मों के बल पर विश्व में अपना नाम रोशन किया तथा सदा के लिए अमर तौ गए। ऐसी वीरागनाओं में झांसी की रानी लक्ष्मीबाई का नाम अग्रणी है। उस वीरांगना के क्रिया-कलापों को याद करक आज भी हृदय पुलकित हो उठता है।
रानी लक्ष्मीबाई का जग 18 नवम्बर, 1835 ईo को वाराणसी में हुआ। इनके पिता का नाम मोरोपन्त एवं माता का नाम भागीरथी था। लक्ष्मीबाई का बचपन का नाम मन्नू था। बचपन से ही उसे गुड्डे-गुड़ियों से खेलना, नाच–तमाशा देखना अच्छा नहीं लगता था। उसे घुड़सवारी करना, तलवारबाजी करना, निशानेबाजी आदि चीजें अच्छी लगती थीं। इनकी माता बचपन से -ही उन्हें वीरांगनाओं की, कहानियां सुनाती रहती थी। उन कहानियों से प्रेरित होकर ही मन्नु के हृदय मैं बचान से ही स्वदेश प्रेम एवं वीरता की भावना चूत-कूट कर भरी हुई श्री। मन्नू जब छ: वर्ष की -हुड् रतो इनकी माता का देहांत हो गया। इनका लालन-पालन बाजीराव पेशवा के संरक्षण में हुआ।
मन्नू जब कुछ बड़ी हुई तो इनका विवाह झाँसी के राजा गंगाधरराव से कर दिया गया। विवाह पश्चात मन्नू लक्ष्मीबाई का गई। कुछ समय पश्चात लक्ष्मीबाई के घर एक पुत्र ने जन्म’ लिया। परन्तु -कुछ ही समय बाद उसकी. मृत्यु हो गई। उसके पश्चात गंगाधरराव भी बीमार रहने लगे तथा उनकी मुता हो गई। रानी ने एक बच्चा गोद लेने की सोची। उस समय बच्चा गोद लेने से पहले ब्रिटिश सरकार से मान्यता लेनी पड़ती थी। उन्होंने झांसी को पुत्र गोद लेने को मान्यता नहीं दी  तथा. झांसी को ब्रिटिश राज्य में मिलाने का ऐलान कर दिशा जिस कारण रानी में अंग्रेजों के प्रति पूणा एवं रोष की’ ज्वाला सुलगने लगी। रानी ने अंग्रेजों पर आक्रमण करने के लिए अपनी सेना तैयार की जिसका परिणाम भारत का प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम सन् 1857 ई. में हुआ। यह चिंगारी मेरठ से प्रारंभ हुई थी तथा फैलती हुई दिल्ली तथा लखनऊ तक पहुंची। अंग्रेजों ने झांसी पर आक्रमण कर दिया। रानी ने उनका जवाब डटकर दिया। परन्तु झांसी के कुछ गद्‌दार अंग्रेजों के साथ जा मिले थे जिस कारण झांसी को हार का सामना करना पड़ा। रानी ने कालपी जाकर पेशवा से मिल जाने का निश्चय किया। जब वे कालपी जा रहीं थीं तो अंग्रेजों को इसकी खबर लग गई। उन्होंने रानी का पीछा किया तथा घमासान युद्ध हुआ। रानी उनका सामना करती रही तथा किसी तरह कालपी पहुंच गई । कालपी के राजा ने रानी की सहायता अपनी सेना देकर की । उस सेना के सहयोग से रानी ने अंग्रेजों पर आक्रमण किया । परन्तु इस बार भी रानी को असफलता ही प्राप्त हुई । रानी सहायता के लिए ग्वालियर नरेश के पास अपनी सेना सहित पहुंची । गवालियर ने महारानी तथा उसकी सेना पर गोलाबारी शुरू कर दी । रानी की सेना ने अपनी बहादुरी से ग्वालियर के किले पर आक्रमण करके उसे अपने कब्जे में ले लिया परन्तु अंग्रेजों ने रानी का पीछा यहां भी नहीं छोड़ा । उन्होंने ग्वालियर के किले को घेर लिया। रानी ने उनका डटकर सामना किया। दोनों हाथों से तलवार से वार करती हुई, मुंह में घोड़े की लगाम लेकर अंग्रेजों को चीरती काटती आगे बढ़ती गई । रानी ने बड़ी वीरता से अंग्रेजों के वार का जवाब दिया और वह लड़ती-लड़ती वीरगति को प्राप्त हो गई। उन्होंने अंग्रेजों के सामने कभी घुटने नहीं टेके। मृत्युपर्यन्त वह अंग्रेजों का डटकर मुकाबला करती रही।

आलेख: कयूम खान, लोहरदगा।

Leave a Reply