mangal pandey
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इतिहास में आज :: क्रन्तिकारी मंगल पांडे का जन्म 19 जुलाई सन 1827 को फ़ैजाबाद जिले के नागवा बलिया गांव में हुआ

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जुलाई | 19, 2017 :: मंगल पांडे भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के अग्रदूत थे। उनके द्वारा भड़काई गई क्रांति की ज्वाला से अंग्रेज़ शासन बुरी तरह हिल गया। हालाँकि अंग्रेजों ने इस क्रांति को दबा दिया पर मंगल पांडे की शहादत ने देश में जो क्रांति के बीज बोए उसने अंग्रेजी हुकूमत को 100 साल के अन्दर ही भारत से उखाड़ फेका। मंगल पांडे ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के अंतर्गत 34वीं बंगाल नेटिव इन्फेंट्री में एक सिपाही थे। सन 1857 की क्रांति के दौरान मंगल पाण्डेय ने एक ऐसे विद्रोह को जन्म दिया जो जंगल में आग की तरह सम्पूर्ण उत्तर भारत और देश के दूसरे भागों में भी फ़ैल गया। यह भले ही भारत के स्वाधीनता का प्रथम संग्राम न रहा हो पर यह क्रांति निरंतर आगे बढ़ती गयी। अंग्रेजी हुकुमत ने उन्हें गद्दार और विद्रोही की संज्ञा दी पर मंगल पांडे प्रत्येक भारतीय के लिए एक महानायक हैं।

क्रन्तिकारी  मंगल पांडे का जन्म 19 जुलाई सन 1827 को फ़ैजाबाद जिले के नागवा बलिया गांव में हुआ था। इनके पिता का नाम दिवाकर पांडे और माता का नाम अभय रानी था। मंगल पांडे बहुत ही साधारण परिवार के थे। उनकी वाणी में अवधि भाषा की मिठास थी। वे अपने माता-पिता का बहुत आदर व सम्मान करते थे।
मंगल पांडे जैसे शांत और सरल स्वभाव का व्यक्ति प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का प्रथम यौद्धा कैसे बना, इसके पीछे एक कहानी है।
एक बार मंगल पांडे किसी काम से अकबरपुर आये थे। उसी समय कम्पनी की सेना बनारस से लखनऊ जा रही थी। मंगल पांडे सेना का मार्च देखने के लिए कौतुहलवश सड़क के किनारे आकर खड़े हो गये। एक सैनिक अधिकारी ने मंगल पांडे को हृष्टपुष्ट और स्वस्थ देखकर सेना में भर्ती हो जाने का आग्रह किया, और वे राजी हो गये।
वे 10 मई सन 1846 में 22 वर्ष की आयु में ईस्ट इंडिया कम्पनी की सेना में भर्ती हुए। जब वे बंगाल छावनी में थे तो एक दिन सिपाही ने बताया की ऐसी चर्चा है कि बन्दूक में जो कारतूस भरने के लिए दी जाती है उसके खोल में गाय और सूअर की चर्बी लगी है। कारतूस भरने से पहले उन्हें मुँह से खीच कर खोलना पड़ता था। यह हिन्दुओ और मुसलमानों दोनों के लिए धर्म के विरुद्ध कार्य था। इस सूचना से सभी सिपाहियों के ह्रदय में घृणा भर गयी। इसी रात बैरकपुर की कुछ इमारतों में आग की लपटें देखी गयी।
वह आग किसने लगायी थी, कुछ पता न चल सका। बन्दूक की कारतूस में गाय व सूअर की चर्बी होने की बात सैनिक छावनियो तक ही सीमित नहीं रही बल्कि सारे उत्तर भारत में फ़ैल गयी। सभी स्थानों में इसकी चर्चा होने लगी। ईस्ट इंडिया कम्पनी की नीतियों को लेकर भारतीयों में असंतोष की भावना पहले से ही थी
इस खबर ने आग में घी का काम किया। बैरकपुर छावनी में भारतीय सैनिको ने संघर्ष छेड़ दिया। बैरकपुर की 16 नवम्बर की पलटन को नए कारतूस प्रयोग करने के लिए दिए गये। सिपाहियों ने उन्हें प्रयोग करने से इंकार कर दिया। अंग्रेज अधिकारियो ने तुरंत ही उस पलटन के हथियार रखवा लिए और सैनिको को बर्खास्त कर दिया। कुछ ने तो चुपचाप हथियार अर्पित कर दिए किन्तु अधिकतर सैनिक क्रांति के लिए तत्पर हो उठे। 26 मार्च सन 1857 को परेड के मैदान में मंगल पांडे ने खुले रूप से अपने साथियों के समक्ष क्रांति का आह्वान किया।
इस पर अंग्रेज सार्जेन्ट मेजर ह्यूसन ने मंगल पांडे को गिरफ्तार करने की आज्ञा दी, परन्तु कोई भी सिपाही आज्ञा पालन करने के लिए आगे न बढ़ा। इतने में मंगल पांडे ने अपने बन्दुक की गोली से तुरंत सार्जेन्ट मेजर ह्यूसन को वहीं पर ढेर कर दिया। इस पर एक दूसरा अफसर लेफ्टिनेन्ट बाघ अपने घोड़े पर आगे लपका तभी मंगल पाण्डे ने एक ऐसा निशाना साधा की एक ही गोली पर घोडा और सवार दोनों जमीन पर आ गिरे। मंगल पांडे ने तीसरी बार अपनी बंदूक भरने का इरादा किया। लेफ्टिनेन्ट बाघ ने उठकर पांडे पर गोली चलायी पर पाण्डे बच गये। मगर यह अंग्रेज अफसर पाण्डे की तलवार की वार से बच न सका। पांडे ने उसे भी समाप्त कर दिया। अंग्रेज अधिकारियो में दहशत फ़ैल गयी। अंत में ज़नरल हियरसे ने चालाकी से मंगल पांडे के पीछे से आकर उसकी कनपटी पर अपनी पिस्तौल तान दी। जब उन्होंने अनुभव किया की अंग्रेजो से बचना मुश्किल है, तब उन्होंने अंग्रेजो का कैदी बनने के बजाय स्वयं को गोली मारना बेहतर समझा और अपनी छाती पर गोली चला दी। लेकिन वे बच गये और मूर्छित होकर गिर पड़े। अंत में घायलावस्था में उन्हें गिरफ्तार किया गया।
मंगल पाण्डे पर सैनिक अदालत में मुकदमा चला। 8 अप्रैल का दिन फांसी के लिए नियत किया गया। किन्तु बैरकपुर भर में कोई भी मंगल पाण्डे को फाँसी देने के लिए राजी न हुआ। अंत में कोलकाता से चार आदमी इस काम के लिए बुलाये गये। 8 अप्रैल सन 1857 को अंग्रेजो ने पूरी रेजिमेन्ट के सामने मंगल पांडे को फाँसी दे दी।
अंग्रेज लेखक चार्ल्स बॉल और रोबर्ट्स दोनों ने लिखा है की उसी दिन से सन 1857-58 के समस्त क्रांतकारी सिपाहियों को ”पाण्डे” के नाम से पुकारा जाने लगा। मंगल पांडे के इस बलिदान से क्रांति की अग्नि और भड़क उठी। उसकी लपटें सारे देश में फ़ैल गयी।

आलेख: कयूम खान, लोहरदगा।

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