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अगर करना है ध्यान योग तो इन बातों का रखें ख्याल

 

योग में मन को चित्त कहा गया है और इसे चित्त की शक्ति के रूप में भी जाना जाता है। जब चित्त शक्ति का संबंध वाह्य वातावरण से होता है तो व्यक्ति पसंद, नापसंद, आकर्षण विकर्षण आदि का जन्म होता है।
इस तरह हमारी चित्त शक्ति बहिर्मुखी बनती है । बहिर्मुखता की इस अवस्था से व्यक्ति विभिन्न उपेक्षाओ, दवाओं तथा चिंताओं से ग्रसित होता है। यदि प्रारंभ में इसका निदान न किया जाए तो यह मानसिक रोग में परिणत हो जाता है ।
ध्यान की सहायता से बुद्धि को अंतर्मुखी बनाकर चेतना का विस्तार किया जा सकता है ।
ध्यान मन को विचलित करने वाले विचारों से मुक्त करने की एक विधि है।
ध्यान के द्वारा मन की सभी स्थितियों के विषय तथा संरचना में परिवर्तन लाया जा सकता है।
ध्यान में व्यक्ति पूर्ण रूप से जागृत रहता है पर यहां मन वाह्य जगत की वस्तुओं या उत्तेजना पर केंद्रित ना रहकर आंतरिक जगत में केंद्रित रहता है ।
ध्यान से शरीर तथा मन पूर्ण रूप से शिथिल होता है तथा यह अकेलेपन के भाव को भी दूर करता है।
अकेला व्यक्ति वह है जो स्वयं को नहीं जानता है। जब व्यक्ति स्वयं को नहीं जानता तो शांति तथा आनंद के लिए वह दूसरों पर आधारित रहता है।
दूसरों पर निर्भर रहने से आसक्ति तथा अपेक्षा का जन्म होता है जो व्यक्ति में चिंता उत्पन्न करता है और अन्तत मानसिक रोग का शिकार हो जाता है। ध्यान के अभ्यास में हमें धीरे-धीरे अपने अंतर जगत में जाते है और अपनी आत्मा का साक्षात्कार करते हैं, जिससे अकेलेपन का अनुभव खत्म होता है और व्यक्ति मानसिक संतुलन प्राप्त करता है।
ध्यान व्यक्तित्व के विभिन्न पहलुओं जैसे शरीर, श्वास तथा मन को समझने की एक सूक्ष्म विधि है।
प्रारंभ से ही ध्यान का चिकित्सीय महत्व है इसके द्वारा मांसपेशियों के तनाव को दूर किया जा सकता है। उससे भी अधिक ध्यान मानसिक तनावो को समाप्त कर मन को शिथिल और शांत बनाता है ।
ध्यान के द्वारा व्यक्ति का प्रतिरक्षत संस्थान ( इम्यून सिस्टम ) मजबूत होता है जिससे वह तनावो से मुक्त होता है। ध्यान के निरंतर अभ्यास से व्यक्ति आत्म निर्भर होता है तथा जीवन की समस्याओं का सामना अधिक प्रभावशाली ढंग से कर पाता है। इस तरह ध्यान मानसिक रोग के बचाव तथा निधान में अहम भूमिका अदा करता है।

मन और इंद्रियों को वश में रखने वाला आशा रहित और संग्रह रहित योगी को अकेले ही एकांत स्थान में स्थिर होकर आत्मा को निरंतर परमात्मा में लगाना चाहिए।
गीता में मन आदि इंद्रियों को विषयो से हटाकर परमात्मा में लगाने की अर्थात ध्यान योग की विधि बतलाई गई है।
ध्यान योग में मुख्य बिंदु इस प्रकार है

1. स्थान : एकांत, पवित्र, समतल अर्थात ना अधिक ऊंचा ना अधिक नीचा होना चाहिए।

2. आसन कुश तृण उसके ऊपर व्याध चर्म तथा उसके भी ऊपर वस्त्र द्वारा बनाया गया अपना आसन बिछाकर बैठना चाहिए।

3. शारीरिक अवस्था : शरीर, मस्तक, और ग्रीवा को स्थिर एव से सीधा रखकर चारों और ना देखकर निश्चल भाव से अपनी नासिका के अग्रभाग को देखते हुए प्रसन्नचित और भय रहित होकर अभ्यास करना चाहिए ।

4. अभ्यास विधि : अन्तरेन्द्रीय और बहिरेन्द्रीय को संयत करके मन को आत्मध्यानपरायण रखकर तन्मयता पूर्वक, ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए नियमित एकाग्र भाव से चित्त शुद्धि के लिए जीवात्मा और परमात्मा की एकता की भावना का अभ्यास करना चाहिए।

5. सावधानी :: योग के साधक को ना तो अधिक खाना चाहिए ना ही बहुत उपवास आदि रखना चाहिए।
उसे ना बहुत रात्रि जागरण करना चाहिए ना ही बहुत सोना चाहिए।
इस प्रकार यथा योग्य आहार विहार कर्मों में यथा योग्य चेष्ठा और यथा योग्य सोने जागने का पालन करना चाहिए।

योगी इसी प्रकार से अपने मन को आत्मा में संलग्न करके उसे संयत रखते हुए भगवान की स्वरूपता को प्राप्त होकर परम निर्वाण को प्राप्त होते हैं।

जगदीश सिंह
Masters in Yogic Science
Level 1 Yoga Instructor ( Yoga Certification Board, Ayush Ministry ).

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