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हास्य नाटक, “अरे ! शरीफ़ लोग” का मंचन

रांची, झारखण्ड | मई | 25, 2019 :: आज हम जीवन के उस दौर से गुज़र रहे हैं जहाँ तनाव, द्वेष, खिन्नता, मनमुटाव, द्विविधा, इष्र्या आदि के सौगात मिलते ही रहते हैं। सुबह उठने के बाद से सोने के पहले तक हम किसी न किसी मानसिक संताप, दबाव, तनाव आदि से गुजरते ही हैं। ऐसे में हास्य की शीतल फुहार से भला कौन नहीं दो चार होना चाहेगा। सभी को खुश रहने के अवसर मिलने ही चाहिए।
व्यक्ति जीवन भर अपने पारिवारिक दायित्वों के निर्वाह में बैल की तरह जुटा रहता है। उसे अपने लिए खुशी तलाशने के अवसर बहुत कम ही मिलते हैं। बच्चों के घर से दूर रहने के सूनेपन और घर में बीवियों की बात बात में उल्हानें और निगरानी से जो मानसिक संताप होता है उसे झेलना सचमुच बहादुरी का काम है।
अधेड़ उम्र के नौजवानों के लिए बस आँखें और मुँह दो ही आॅर्गन खुशी के लिए माकूल होते हैं। ऐसे में पड़ोसियों के साथ मिलकर थोड़ा ताका-झाँकी हो जाय तो बुरा क्या है ? और इस उम्र में यह ताका झाँकी वाली मनोवृति भी अपने आप ही पनप जाती है। शायद ! जीने की इच्छा और आशा के संचार के लिए या कह लें जीवन के संतुलन के लिए।
इस नाटक में भी यही बात है। अनोखे लाल, पंडित जी, डाॅ॰ घटक और मास्टर बिहारी लाल समाज के वैसे लोगों के प्रतिनिधित्व करते हैं जिनके जीवन में खुशियाँ हासिल करने के लिए शायद ही कुछ हो। उम्र की इस दहलीज़ पर दोस्तों के साथ बस कुछ देखा-देखी, बोला-बोली हो जाय तो हो जाय इसी में वे खुशी ढँूढ लेते हैं और घरों में बीवियों की निगरानी से त्रस्त होने के बावजूद वे घरों में ही सबसे ज्यादा ध्यान भी देते हैं। डर से या प्यार से वे तो वही जाने।
तनाव भरे जीवन में कुछ पल आदमी हँस ले, खुश हो ले, बस इसी उद्देश्य से इस नाटक के मंचन की योजना बनाई गई। सामाजिक जीवन की कुछ विषमताओं को परिस्थितिजन्य हास्य के माध्यम से मराठी लेखक जयवंत दलवी ने जो कथानक बनाई है वह सर्वथा सराहनीय है। डाॅ॰ विजय बापट ने इस नाटक का हिन्दी रूपान्तरण कर हिन्दी भाषी क्षेत्रों के लिए एक पुण्य का कार्य किया है।
नाटक में अखिल भारतीय सांस्कृतिक संगठन ‘संस्कार भारती’ राँची महानगर इकाई के कलाकारों ने भी अपना संपूर्ण सहयोग दिया।

अरे ! शरीफ़ लोग
संक्षिप्त कथा
एक ही चाॅल में रहने वाले अधेड़ उम्र के सचिवालय बाबू अनोखे लाल, पोस्टमास्टर सीताराम पंडित जी, आयुर्वेदिक डाॅक्टर घटक और मास्टर बिहारी लाल के खुश रहने के अपने अपने तरीके हैं। उम्र का ही तकाज़ा है कि अब वे ताका-झांकी में ही अपनी खुशियाँ बटोर लेते हैं।
उनके चाॅल में एक खूबसूरत सी लड़की रहने आ जाती है। अब उन चारों के लिए ताका झांकी की फ्रिक्वेंसी और आपस में मिलकर गैलरी में खड़े रहने का समय बढ़ जाता है ताकि उस लड़की की एक झलक मिल जाये। उनकी पत्नियाँ उनके व्यवहार को ताड़ लेती है और उनपर निगरानी तथा नियंत्रण रखना बढ़ा देती हैं। अनोखेलाल का बेटा भी परिस्थितियों को भांप कर मज़ा लेना शुरू कर देता है और अपने डिंगडाँग आइडिया से चारों पुरूषों को उलझाता रहता है और स्वयं मजा लेता है। पत्र लेखन, इत्र की खुशबू , जूड़ा आदि के प्रसंगो से वह इतना कन्फ्युजन पैदा कर देता है कि चारो पुरूष और उनकी पत्नियाँ चक्कर खाती रहती हैं।
इन्हीं सब परिस्थितियों की कथानक से बुना हुआ है हास्य नाटक अरे ! शरीफ़ लोग। जिसमें मनोरंजन के साथ एक सामाजिक संदेश भी छुपा है कि हम सब किसी भी उम्र के दहलीज़ पर हों लेकिन आपस में मिलजुल कर रहना चाहिए और जीवन को सरलता से लेना चाहिए।

लेखक – जयवंत दलवी (मूल मराठी नाटक)
हिन्दी रूपान्तरण – डाॅ॰ विजय बापट
निर्देशक – डाॅ॰ सुशील कुमार ‘अंकन’

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