वर्तमान तकनीकी युग में अपनी व्यस्तता के बीच एक क्षण
अपने लिए जरूर निकालिए।
हमारा मन महासागर के समान है।
इस महासागर में धनात्मक और ऋणात्मक वृत्तिया उत्पन्न होती हैं, जो एक दूसरे के विरुद्ध है।
एक मन को शांत रखता है तो दूसरा चंचल बनाता है।
इन दोनों विपरीत मन को ध्यान द्वारा संतुलित कीजिए।
ध्यान मे मन के विचारों को देखें, इन विचारों को ना रोके, बिल्कुल मानस पटल पर इन्हें दौड़ने दें।
अच्छे बुरे विचार सभी को आने दें।
धीरे-धीरे इन विचारों से आप पृथक हो जाएंगे।
फिर अपने स्वभाव को अच्छी तरह से समझ सकेंगे।
मन के मूलभूत तत्वों से आपका परिचय होगा।
बड़े-बड़े विचारकों ने इसकी तुलना हिमशैल से की है।
जिसका सिर्फ कुछ भाग बाहर दिखाई पड़ता है। बाकी अश सागर के अंदर होता है ।
इसी आंतरिक भाग को, अदृश्य मन को मनोवैज्ञानिकों ने अवचेतन एवं अचेतन मन कहा है।
योग शास्त्र इसे सूक्ष्म और कारण के रूप में स्वीकारा है।
ध्यान के अभ्यास के द्वारा मन के इस भाग का मूलशोधन किया जाता है।
हम विचारों को जानने के क्रम में दृष्टाभाव उत्पन्न करते हैं।
यही दृष्टाभाव सूक्ष्म एवं कारण स्तर पर परिवर्तन लाता है।
मनुष्य की जो बहिर्मुखी एवं अंतर्मुखी चेतना है, इन दोनों के बीच स्पष्टता उत्पन्न कर सूक्ष्म शक्तियों की जागृति ही ध्यान है ।
ध्यान एक अखंड जागृति है।
जिसमें चेतना का रूपांतरण होता है।
चित्त सूक्ष्म होती है।
इस चित्त को जानने के लिए योगशास्त्र में बिंदु की कल्पना की गई है यह बिंदु तीन प्रकार के होते हैं।
सूक्ष्म, स्थूल और मध्यम। मूर्ति पर ध्यान स्थूल बिंदु ध्यान है ।
चक्र पर ध्यान मध्यम बिंदु है ।
मैं अमर हूं यह भाव सूक्ष्म बिंदु है ।
इसलिए ध्यान करने वालों को अपने लिए एक बिंदु का निर्धारण अवश्य करना चाहिए।
व्याधियां पहले चित्त को पकड़ती है, जो विचारों में वृत्तियों लाता है।
ध्यान चित्त एवं विचारों से वृत्तियों को हटाता है।
मन की शक्तियों का केंद्रीकरण करता है।
हमारे संस्कार और कर्म हमारे डीएनए की तरह हमारे व्यक्तित्व का निर्माण करते हैं।
ध्यान द्वारा जैसे जैसे हम अपने पूर्व संस्कारों को निकालते हैं अंतर आत्मा की शुद्धि होती हैं।
सत्व गुण प्रबल होने लगते हैं जिसका प्रभाव व्यक्ति के विचार, व्यवहार, हाव भाव से परिलक्षित होता है।
डॉ परिणीता सिंह
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