अगस्त | 03, 2017 :: भारत-भारती’ के राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त खड़ी बोली व ब्रजभाषा के प्रथम महत्वपूर्ण कवि हैं। वह कबीर दास के भक्त थे। पंडित महावीर प्रसाद द्विवेदी की प्रेरणा से उन्होंने खड़ी बोली को अपनी रचनाओं का माध्यम बनाया। मैथिलीशरण गुप्त का जन्म 3 अगस्त, 1886 को झांसी में हुआ। उन्हें साहित्य जगत में ‘दद्दा’ नाम से संबोधित किया जाता था।
‘भारत-भारती’, मैथिलीशरण गुप्तजी द्वारा स्वदेश प्रेम को दर्शाते हुए वर्तमान और भावी दुर्दशा से उबरने के लिए समाधान खोजने का एक सफल प्रयोग कहा जा सकता है। भारत दर्शन की काव्यात्मक प्रस्तुति ‘भारत-भारती’ निश्चित रूप से किसी शोध से कम नहीं आंकी जा सकती।
मैथिलीशरण गुप्त स्वभाव से ही लोकसंग्रही कवि थे और अपने युग की समस्याओं के प्रति विशेष रूप से संवेदनशील रहे। उनका काव्य एक ओर वैष्णव भावना से परिपोषित था, तो साथ ही जागरण व सुधार युग की राष्ट्रीय नैतिक चेतना से अनुप्राणित भी था।
लाला लाजपतराय, बाल गंगाधर तिलक, विपिनचंद्र पाल, गणेश शंकर विद्यार्थी और मदनमोहन मालवीय उनके आदर्श रहे। महात्मा गांधी के भारतीय राजनीतिक जीवन में आने से पूर्व ही गुप्त का युवा मन गरम दल और तत्कालीन क्रांतिकारी विचारधारा से प्रभावित हो चुका था। ‘अनघ’ से पूर्व की रचनाओं में, विशेषकर जयद्रथ वध और भारत भारती में कवि का क्रांतिकारी स्वर सुनाई पड़ता है।
बाद में महात्मा गांधी, राजेंद्र प्रसाद, जवाहरलाल नेहरू और विनोबा भावे के संपर्क में आने के कारण वह गांधीवाद के व्यावहारिक पक्ष और सुधारवादी आंदोलनों के समर्थक बने।
सन् 1936 में गांधी ने ही उन्हें मैथिली काव्य-मान ग्रंथ भेंट करते हुए राष्ट्रकवि का संबोधन दिया। महावीर प्रसाद द्विवेदी के संसर्ग से गुप्तजी की काव्य-कला में निखार आया और उनकी रचनाएं ‘सरस्वती’ में निरंतर प्रकाशित होती रहीं। 1909 में उनका पहला खंडकाव्य ‘जयद्रथ-वध’ आया। इसकी लोकप्रियता ने उन्हें लेखन और प्रकाशन की प्रेरणा दी। 59 वर्षों में गुप्त जी ने गद्य, पद्य, नाटक, मौलिक तथा अनुदत सब मिलाकर, हिंदी को लगभग 74 रचनाएं प्रदान की हैं, जिनमें दो महाकाव्य, 20 खंड काव्य, 17 गीतिकाव्य, चार नाटक और गीतिनाट्य हैं।
काव्य के क्षेत्र में अपनी लेखनी से संपूर्ण देश में राष्ट्रभक्ति की भावना भर दी थी। राष्ट्रप्रेम की इस अजस्रधारा का प्रवाह बुंदेलखंड क्षेत्र के चिरगांव से कविता के माध्यम से हो रहा था। बाद में इस राष्ट्रप्रेम की इस धारा को देशभर में प्रवाहित किया था राष्ट्रकवि गुप्त ने।
उनकी पंक्ति है
जो भरा नहीं है भावों से जिसमें बहती रसधार नहीं।
वह हृदय नहीं है पत्थर है, जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं
पिताजी के आशीर्वाद से वह राष्ट्रकवि के सोपान तक पदासीन हुए। महात्मा गांधी ने उन्हें राष्ट्रकवि कहे जाने का गौरव प्रदान किया। भारत सरकार ने उनकी सेवाओं को देखते हुए उन्हें दो बार राज्यसभा की सदस्यता प्रदान की। हिन्दी में मैथिलीशरण गुप्त की काव्य-साधना सदैव स्मरणीय रहेगी। बुंदेलखंड में जन्म लेने के कारण गुप्त जी बोलचाल में बुंदेलखंडी भाषा का ही प्रयोग करते थे।
धोती और बंडी पहनकर माथे पर तिलक लगाकर संत के रूप में अपनी हवेली में बैठे रहा करते थे। उन्होंने अपनी साहित्यिक साधना से हिन्दी को समृद्ध किया। मैथिलीशरण गुप्त के जीवन में राष्ट्रीयता के भाव कूट-कूट कर भर गए थे। इसी कारण उनकी सभी रचनाएं राष्ट्रीय विचारधारा से ओतप्रोत है।
वह भारतीय संस्कृति एवं इतिहास के परम भक्त थे। परंतु अंधविश्वासों और थोथे आदर्शो में उनका विश्वास नहीं था। वह भारतीय संस्कृति की नवीनतम रूप की कामना करते थे।
मैथिलीशरण गुप्त को काव्य क्षेत्र का शिरोमणि कहा जाता है। उनकी प्रसिद्धि का मूलाधार ‘भारत-भारती’ है। यही उन दिनों राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम का घोषणापत्र बन गई थी।
‘साकेत’ और ‘जयभारत’ इनके दोनों महाकाव्य हैं। ‘साकेत’ रामकथा पर आधारित है, लेकिन इसके केंद्र में लक्ष्मण की पत्नी उर्मिला है। कवि ने उर्मिला और लक्ष्मण के दाम्पत्य जीवन के हृदयस्पर्शी प्रसंग तथा उर्मिला की विरह दशा का अत्यंत मार्मिक चित्रण किया है, साथ ही कैकेयी के पश्चात्ताप को दर्शाकर उसके चरित्र का मनोवैज्ञानिक एवं उज्जवल पक्ष प्रस्तुत किया है।
इसी तरह ‘यशोधरा’ में गौतम बुद्ध की मानिनी पत्नी यशोधरा केंद्र में है। यशोधरा की मन: स्थितियों का मार्मिक अंकन इस काव्य में हुआ है तो ‘विष्णुप्रिया’ में चैतन्य महाप्रभु की पत्नी केंद्र में है।
खड़ी बोली के स्वरूप निर्धारण और विकास में गुप्त सततजी का अन्यतम योगदान रहा। आजादी के बाद उन्हें मानद राज्यसभा सदस्य का पद प्रदान किया गया। उनका निधन 12 दिसंबर, 1964 को झांसी में हुआ।
मैं आपने आलेख अंत करूं, इससे पूर्व उनकी महत्वपूर्ण रचना
“नर हो, न निराश करो मन को
कुछ काम करो, कुछ काम करो
जग में रह कर कुछ नाम करो
यह जन्म हुआ किस अर्थ अहो
समझो जिसमें यह व्यर्थ न हो
कुछ तो उपयुक्त करो तन को
नर हो, न निराश करो मन को।
आलेख: कयूम खान, लोहरदगा।