रांची, झारखण्ड । जुलाई | 06, 2017 :: रांची भाजपा कार्यालय में डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी की जयंती के उपलक्ष्य मे झारखण्ड के मुख्यमंत्री रघुवर दास ने उनकी प्रतिमा पर माल्यार्पण किया।
डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी का जन्म 6 जुलाई, 1901 को एक प्रसिद्ध बंगाली परिवार में हुआ था। उनकी माता का नाम जोगमाया देवी मुखर्जी था और पिता आशुतोष मुखर्जी बंगाल के एक जाने-माने व्यक्ति और कुशल वकील थे। डॉ. मुखर्जी ने कलकत्ता विश्वविद्यालय से स्नातक की डिग्री प्रथम श्रेणी में 1921 में प्राप्त की थी। इसके बाद उन्होंने 1923 में एम.ए. और 1924 में बी.एल. किया। वे 1923 में ही सीनेट के सदस्य बन गये थे। उन्होंने अपने पिता की मृत्यु के बाद कलकता उच्च न्यायालय में एडवोकेट के रूप में अपना नाम दर्ज कराया। बाद में वे सन 1926 में ‘लिंकन्स इन’ में अध्ययन करने के लिए इंग्लैंड चले गए और 1927 में बैरिस्टर बन गए।
डॉ. मुखर्जी तैंतीस वर्ष की आयु में कलकत्ता विश्वविद्यालय में विश्व के सबसे कम उम्र के कुलपति बनाये गए थे। इस पद को उनके पिता भी सुशोभित कर चुके थे। 1938 तक डॉ. मुखर्जी इस पद को गौरवान्वित करते रहे। उन्होंने अपने कार्यकाल के दौरान अनेक रचनात्मक सुधार कार्य किए तथा ‘कलकत्ता एशियाटिक सोसायटी’ में सक्रिय रूप से हिस्सा लिया। वे ‘इंडियन इंस्टीटयूट ऑफ़ साइंस’, बंगलौर की परिषद एवं कोर्ट के सदस्य और ऑफ़ बोर्ड के चेयरमैन भी रहे।
वे अखण्ड भारत के पुरोध, शिक्षाविद् विधिवेत्ता और चिन्तक होने के साथ-साथ भारतीय जनसंघ के संस्थापक भी थे। उन्हें एक प्रखर राष्ट्रवादी और कट्टर देशभक्त के रूप में याद किया जाता है। डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी सच्चे अर्थों में मानवता के उपासक और सिद्धांतों के पक्के इंसान थे। संसद में उन्होंने सदैव राष्ट्रीय एकता की स्थापना को ही अपना प्रथम लक्ष्य रखा था। संसद में दिए अपने भाषण में उन्होंने पुरजोर शब्दों में कहा था कि “राष्ट्रीय एकता के धरातल पर ही सुनहरे भविष्य की नींव रखी जा सकती है।” भारतीय इतिहास में उनकी छवि एक कर्मठ और जुझारू व्यक्तित्व वाले ऐसे इंसान की है, जो अपनी मृत्यु के इतने वर्षों बाद भी अनेक भारतवासियों के आदर्श और पथ प्रदर्शक हैं।
कलकत्ता विश्वविद्यालय का प्रतिनिधित्व करते हुए श्यामा प्रसाद मुखर्जी कांग्रेस उम्मीदवार के रूप में बंगाल विधान परिषद के सदस्य चुने गए थे, किंतु उन्होंने अगले वर्ष इस पद से उस समय त्यागपत्र दे दिया, जब कांग्रेस ने विधान मंडल का बहिष्कार कर दिया। बाद में उन्होंने स्वतंत्र रूप से चुनाव लड़ा और निर्वाचित हुए। वर्ष 1937-1941 में ‘कृषक प्रजा पार्टी’ और मुस्लिम लीग का गठबन्धन सत्ता में आया। इस समय डॉ. मुखर्जी विरोधी पक्ष के नेता बन गए। वे फज़लुल हक़ के नेतृत्व में प्रगतिशील गठबन्धन मंत्रालय में वित्तमंत्री के रूप में शामिल हुए, लेकिन उन्होंने एक वर्ष से कम समय में ही इस पद से त्यागपत्र दे दिया। वे हिन्दुओं के प्रवक्ता के रूप में उभरे और शीघ्र ही ‘हिन्दू महासभा’ में शामिल हो गए। सन 1944 में वे इसके अध्यक्ष नियुक्त किये गए थे।
राष्ट्रीय एकात्मता एवं अखण्डता के प्रति आगाध श्रद्धा ने ही डॉ. मुखर्जी को राजनीति के समर में झोंक दिया। अंग्रेज़ों की ‘फूट डालो व राज करो’ की नीति ने ‘मुस्लिम लीग’ को स्थापित किया था। डॉ. मुखर्जी ने ‘हिन्दू महासभा’ का नेतृत्व ग्रहण कर इस नीति को ललकारा। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने उनके हिन्दू महासभा में शामिल होने का स्वागत किया, क्योंकि उनका मत था कि हिन्दू महासभा में मदन मोहन मालवीय जी के बाद किसी योग्य व्यक्ति के मार्गदर्शन की जरूरत थी। कांग्रेस यदि उनकी सलाह को मानती तो हिन्दू महासभा कांग्रेस की ताकत बनती तथा मुस्लिम लीग की भारत विभाजन की मनोकामना पूर्ण नहीं होती।
इतिहासकारों के मुताबिक महात्मा गांधी की हत्या के बाद डॉ. मुखर्जी चाहते थे कि हिन्दू महासभा को केवल हिन्दुओं तक ही सीमित न रखा जाए अथवा यह जनता की सेवा के लिए एक गैर-राजनीतिक निकाय के रूप में ही कार्य न करे। वे 23 नवम्बर, 1948 को इस मुद्दे पर इससे अलग हो गए। पंडित जवाहरलाल नेहरू ने उन्हें अंतरिम सरकार में उद्योग एवं आपूर्ति मंत्री के रूप में सम्मिलित किया था। डॉ. मुखर्जी ने लियाकत अली ख़ान के साथ दिल्ली समझौते के मुद्दे पर 6 अप्रैल, 1950 को मंत्रिमंडल से त्यागपत्र दे दिया। मुखर्जी जी ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संघचालक गुरु गोलवलकर जी से परामर्श करने के बाद 21 अक्तूबर, 1951 को दिल्ली में ‘भारतीय जनसंघ’ की नींव रखी और इसके पहले अध्यक्ष बने। सन 1952 के चुनावों में भारतीय जनसंघ ने संसद की तीन सीटों पर विजय प्राप्त की, जिनमें से एक सीट पर डॉ. मुखर्जी जीतकर आए। उन्होंने संसद के भीतर ‘राष्ट्रीय जनतांत्रिक पार्टी’ बनायी, जिसमें 32 सदस्य लोक सभा तथा 10 सदस्य राज्य सभा से थे, हालांकि अध्यक्ष द्वारा एक विपक्षी पार्टी के रूप में इसे मान्यता नहीं मिली।
जिस समय अंग्रेज़ अधिकारियों और कांग्रेस के बीच देश की स्वतंत्रता के प्रश्न पर वार्ताएँ चल रही थीं और मुस्लिम लीग देश के विभाजन की अपनी जिद पर अड़ी हुई थी, श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने इस विभाजन का बड़ा ही कड़ा विरोध किया। कुछ लोगों की मान्यता है कि आधे पंजाब और आधे बंगाल के भारत में बने रहने के पीछे डॉ. मुखर्जी के प्रयत्नों का ही सबसे बड़ा हाथ है।
उस समय जम्मू-कश्मीर का अलग झंडा और अलग संविधान था। वहाँ का मुख्यमंत्री भी प्रधानमंत्री कहा जाता था। लेकिन डॉ. मुखर्जी जम्मू-कश्मीर को भारत का पूर्ण और अभिन्न अंग बनाना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने जोरदार नारा भी दिया कि-एक देश में दो निशान, एक देश में दो प्रधान, एक देश में दो विधान नहीं चलेंगे, नहीं चलेंगे। अगस्त, 1952 में जम्मू की विशाल रैली में उन्होंने अपना संकल्प व्यक्त किया था कि “या तो मैं आपको भारतीय संविधान प्राप्त कराऊँगा या फिर इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए अपना जीवन बलिदान कर दूंगा।”
जम्मू-कश्मीर में प्रवेश करने पर डॉ. मुखर्जी को 11 मई,
1953 में शेख़ अब्दुल्ला के नेतृत्व वाली सरकार ने हिरासत में ले लिया, क्योंकि उन दिनों कश्मीर में प्रवेश करने के लिए भारतीयों को एक प्रकार से पासपोर्ट के समान एक परमिट लेना पडता था और डॉ. मुखर्जी बिना परमिट लिए जम्मू-कश्मीर चले गए थे, जहाँ उन्हें गिरफ्तार कर नजरबंद कर लिया गया। वहाँ गिरफ्तार होने के कुछ दिन बाद ही 23 जून, 1953 को रहस्यमय परिस्थितियों में उनकी मृत्यु हो गई। उनकी मृत्यु का खुलासा आज तक नहीं हो सका है। भारत की अखण्डता के लिए आज़ाद भारत में यह पहला बलिदान था। इसका परिणाम यह हुआ कि शेख़ अब्दुल्ला हटा दिये गए और अलग संविधान, अलग प्रधान एवं अलग झण्डे का प्रावधान निरस्त हो गया। ‘धारा 370’ के बावजूद कश्मीर आज भारत का अभिन्न अंग बना हुआ है। इसका सर्वाधिक श्रेय डॉ. मुखर्जी को ही दिया जाता है।